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________________ सामान्यत: जीव प्रति समय सात-आठ कर्मों का बंध करता है। एक साथ ग्रहण किए हुए कार्मणस्कंधों को किस-किस परिमाण में विभाजित किया जाता है, विभाजन में किस कर्म को कितना अनुपात प्राप्त होता है - यह विभाग व्यवस्था भी प्रदेशबंध का ही कार्य है। सामान्यतः प्रदेश परिमाण का नियामक है स्थितिबंध अर्थात् जिस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति जितनी अधिक है उसको प्रदेश समूह भी उतना ही अधिक मिलेगा पर इसमें आयुष्य और वेदनीय – ये दो कर्म अपवाद हैं। आयुष्य कर्म का बंध जीवन में एक बार होता है । आयुष्य बंध का अधिकतम काल अन्तमुहूर्त्त है । अत: उस अन्तर्मुहूर्त को छोड़कर कर्मस्कंधों के सात ही विभाग होते हैं । जिस समय आयुष्य बंध होता है उस समय भी आठ कर्मों में आयष्य को सबसे कम स्कंध प्राप्त होते हैं । दूसरी ओर वेदनीय कर्म इस विभाजन में सबसे अधिक भागीदार है । यद्यपि स्थिति दृष्टि से उसका स्थान मोहनीय के बाद तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के समान है । कर्मसिद्धान्त के अनुसार यदि वेदनीय को कम पुद्गल प्राप्त हों तो सुख - दुःख आदि की स्पष्ट अनुभूति नहीं हो पाती, अतः स्थिति कम होते हुए भी प्रदेशबंध में उसे सबसे आगे रखना जरूरी है। इस प्रकार प्रदेशबंध की विभाजन - व्यवस्था का स्थूल प्रारूप यह है सबसे कम – आयुष्यकर्म उससे बहुभाग अधिक - नाम व गोत्र कर्म उससे बहुभाग अधिक – ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय उनसे बहुभाग अधिक - मोहनीय उससे बहुभाग – अधिक वेदनीय " पंचसंग्रह का मन्तव्य भी कर्मग्रंथ के समान है । 2 गोम्मटसार के अनुसार सुख और दुःख के निमित्त से वेदनीय कर्म की निर्जरा बहुत होती है, अत: प्रदेशबंध में उसे सर्वाधिक हिस्सा मिलता है 133 - प्रदेशबंध का कारण है योग । यदि विवक्षित जीव संज्ञी है, समस्त पर्याप्तियों – जीवनी शक्तियों से युक्त है तथा विवक्षित काल में कम प्रकृतियों का बंध करता है तो तीव्रयोग की अवस्था में प्रदेश-बंध सर्वाधिक होता है, जैसे दसवें गुणस्थान में । इसके विपरीत उपर्युक्त चारों में से एक भी शर्त कम हो तो प्रदेशबंध में अन्तर आ जाता है 14 असंज्ञी, अपर्याप्त अथवा मन्दयोग के समय यदि आठों कर्म-प्रकृतियों का बंध हो तो मांग- पूर्ति के सिद्धान्त के अनुसार प्रदेशबंध बहुत कम हो पाता है । जैनदर्शन पुरुषार्थ प्रधान है। इसमें संक्रमण के द्वारा प्रकृति के परिवर्तन तथा अपवर्तन के द्वारा रस एवं स्थिति घात करके कर्म को बदलने का सिद्धान्त मान्य है परन्तु प्रदेशबंध को परिवर्तित नहीं किया जा सकता । अतः 'नामुक्तं क्षीयते क्वचित्' 'नत्थि अवेयइत्ता मोक्खो ' आदि सूक्त प्रदेशबंध की अपेक्षा से अक्षरशः सत्य हैं, क्योंकि उसे भोगे बिना क्षय सम्भव नहीं । इसीलिए भगवान् ने कहा तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 Jain Education International - For Private & Personal Use Only 61 www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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