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________________ बाह्य निमित्त हैं, अल्प सामर्थ्य वाले हैं। कर्म आन्तरिक निमित्तों-रागद्वेषात्मक परिणतियों से आत्मा के साथ एकीभूत हो जाते हैं, सूक्ष्मतम स्कंध हैं, अत: उनका सामर्थ्य व प्रभाव बेड़ी आदि की अपेक्षा अधिक होता है। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा और कर्म का संशूष होना बंध है। वाचक उमास्वाति के अनुसार सकषायी जीव कर्म के योग्य परमाणुओं को ग्रहण करता है, वह बंध है। आचार्य हरिभद्र ने बंध को परिभाषित करते हुए लिखा है कि आत्मा और कर्म का जो परस्परानुग सम्बंध हैं वहीं बंध है। पूज्यपाद ने बंध को विस्तार से परिभाषित करते हुए बतायामिथ्यादर्शन आदि अभिनिवेशों से आर्द्र बने हुए आत्मा के योग विशेष से, उन सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाही, कर्मभाव को प्राप्त होने योग्य अनन्तानन्त पुद्गलों का उपश्लेष होना बंध है। अकलंक के अनुसार कर्मप्रदेशों का आत्मप्रदेशों में एकक्षेत्रावगाह हो जाना बंध है। इस प्रकार कर्मपुद्गलों का आदान एवं आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक हो जाना बंध है। यह कर्मबंध कैसे होता है? इसकी क्या प्रक्रिया है? इसमें मुख्य हेतु क्या हैं? क्या इसकी कोई निश्चित कालमर्यादा है? इसका परिमाण कितना होता है? कौन-सा कर्म कितनी मात्रा में आत्मतत्त्व को प्रभावित करता है? कर्म के कार्य (प्रकृति) का निर्धारण करने वाला तत्त्व क्या है? उसकी काल-स्थिति को कौन निश्चित करता है? कर्म के रसबंध के कितने प्रकार हो सकते हैं? आदि प्रश्नों के संदर्भ में जैनदर्शन में विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। __ जैनदर्शन के अनुसार सकर्मा जीव ही कर्मबंध करता है। कर्ममुक्त आत्मा में प्रवृत्ति एवं दोष (कषाय) का अभाव होता है, अत: कर्मबंध उसी प्रकार सम्भव नहीं जैसे सूखी दीवार पर रेत का चिपकना। जिस प्रकार तेज हवा के निमित्त से चिकनी दीवार पर रेत का जमाव अधिक व सघन होता है उसी प्रकार योग और कषाय की न्यूनाधिकता बंध की व्यवस्था को प्रभावित करती हैं। कर्मवर्गणा के पुद्गल आत्मा के साथ तभी संश्लिष्ट हो सकते हैं जब मानसिक, वाचिक या शारीरिक प्रवृत्ति के रूप आंधी से उनका आकर्षण हो और कषाय रूप लेप से आत्मा में चिपचिपाहट हो । आत्मा और कर्म का 'स्नेह' उनके बंध का कारण बनता है। इसीलिए भगवतीसूत्र में बंध के विषय में 'अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा' शब्द का प्रयोग किया गया है। यहां स्नेह शब्द से पुदगलों के संदर्भ में स्निग्ध एवं रुक्ष स्पर्श तथा आत्मा के लिए संदर्भ में राग द्वेषमय आत्मपरिणाम विवक्षित हैं । बंध की प्रक्रिया में दोनों प्रकार के स्नेह वैसे ही जरूरी हैं, जैसे विद्युत में पोजिटिव नेगेटिव चार्ज। बंध-प्रक्रिया को भलीभांति समझने के लिए उसके चार प्रकारों को जानना आवश्यक है 1. प्रकृतिबंध-कर्मों का स्वभाव। 2. स्थितिबंध- जीव के साथ कर्म के सम्बंध की कालावधि। 3. अनुभागबंध-कर्मपुद्गलों में फल-प्रदान करने वाली शक्ति विशेष। 4. प्रदेशबंध-कर्म-पुदगलों का परिमाण, मात्रा। 54 - तुलसी प्रज्ञा अंक 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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