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'दोगुंछी' का संस्कृत रूप 'जुगुप्सी' गुपू रक्षणे' धातु से निष्पन्न है। उसका शाब्दिक अर्थ है-घृणा करने वाला। मुनि हिंसा से, अनाचार से घृणा करता है। प्यास से आक्रान्त होने पर भी सचित्त जल का सेवन उसके लिए अनाचीर्ण होने से त्याज्य है, अहितकर है। वह परीषह सहन कर लेता है किन्तु ऐसी हिंसा से घृणा करता है। यहां 'दोगुंछी' शब्द मुनि की अहिंसक वृत्ति का, अविराम साधना का प्रतीक है जो साधु की सही पहचान की प्रतीति कराने में समर्थ है। लाढे (लाढः)
आगमिक भाषा ऋषि-रचित होने से अध्यात्मपरक है। 'लाढ' मूल रूप में एक प्रदेश का नाम है, किन्तु यहां कष्टसहिष्णु के रूप में प्रयुक्त होने से काव्यजगत् में उभरने वाला आगमकार का यह एकदम नया प्रतीक है।
एग एव चरे लाढे अभिभूय परीसहे।
गामे वा नगरे वावि निगमे वा रायहाणिए । संयम के लिए जीवन-निर्वाह करने वाला मुनि परीषहों को जीतकर गांव में या नगर में, निगम में या राजधानी में अकेला (राग-द्वेष रहित होकर) विचरण करे।
भगवान महावीर ने लाढ देश में विहार किया था, तब वहां अनेक कष्ट सहे थे। कभी शिकारी कुत्तों के तो कभी वहां के रुक्षभोजी लोगों के। आगे चलकर लाढ शब्द कष्ट सहने वालों के लिए श्लाघा-सूचक बन गया। संयमी जो कि कष्ट-सहिष्णु है, उसके लिए यहां लाढ शब्द का अर्थगर्भित प्रतीकात्मक प्रयोग हुआ है।
इसी आगम के १५/२ में लाढ का अथ सत् अनुष्ठान से प्रधान किया है।12
इसी गाथा में प्रयुक्त 'एग' शब्द 'राग-द्वेष-रहितता' का तथा जनता के मध्य रहता हुआ भी 'अप्रतिबद्धता' का सूचक है। घयसित्त व्व पावए (घृतसिक्तः इव पावकः)
क्रोध की अभिव्यक्ति, दीप्ति, निर्वाण, तेजस्विता की अभिव्यक्ति के लिए 'अग्नि' प्रतीक सर्व प्रचलित है। स्वयं रचनाकार ने निर्वाण, दीप्ति अर्थ में 'घृतसिक्त-अग्नि' प्रतीक का प्रयोग किया है
सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई।
निव्वाणं परमं जाइ घयसित्त व्व पावए॥ शुद्धि उसे प्राप्त होती है, जो ऋजुभूत होता है। धर्म उसमें ठहरता है जो शुद्ध होता है। जिसमें धर्म ठहरता है वह घृत से अभिसिक्त अग्नि की भांति परम निर्वाण (समाधि) को प्राप्त होता है।
_घृतसिक्त-अग्नि को निर्वाण का प्रतीक बनाकर कवि कहना चाहता है कि पलाल, तृण आदि के द्वारा अग्नि उतनी दीप्त नहीं होती जितनी घृत के सिंचन से होती है। घृत से अग्नि तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 :
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