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________________ कारुण्य अहिंसा - भावना का प्रधान केन्द्र है । उसके बिना अहिंसा जीवित नहीं रह सकती। समस्त प्राणियों पर अनुग्रह करना इसकी मूल भावना है। हेयोपादेय ज्ञान से शून्य दीन पुरुषों पर विविध सांसारिक दुःखों से पीड़ित पुरुषों पर, स्वयं के जीवन - याचक जीव-जन्तुओं पर, अपराधियों पर, अनाथ, बल, वृद्ध, सेवक आदि पर तथा दुःख - पीड़ित प्राणियों पर प्रतीकात्मक बुद्धि से उनके उद्धार की भावना ही कारुण्य भावना है । यही अहिंसामय धर्म है। 22 कर्म की प्रधानता : तात्कालीन जीवन में वर्ण-व्यवस्था ऊँच-नीच की भावना से ग्रस्त होकर समाज को जर्जर कर रही थी। यही कारण है कि बौद्ध-ग्रन्थों में वर्ण-व्यवस्था की कड़ी भर्त्सना की गई है। 23 जन्म के स्थान पर कर्म को प्रमुखता दी गई है तथा उनके पारस्परिक भेदभाव को कम करने की चेष्टा की गई है। भगवान् बुद्ध की उपर्युक्त धारणा का स्पष्टीकरण मज्झिमनिकाय के अस्सलायनसुत्त में मिलता है, जिसमें भगवान् बुद्ध ने जाति-भेद सम्बन्धी मिथ्या धारणाओं का निरसन कर चारों वर्गों के मोक्ष या नैतिक शुद्धि की धारणा की प्रतिस्थापना की है | 24 भगवान बुद्ध के संघ में समाज के सभी वर्गों के व्यक्ति थे । बौद्ध धर्म के प्रसार में यह भावना विशेष रूप से सहायक बनी है कि बौद्ध धर्म के पालन के लिए व्यक्ति को अपना सामाजिक जीवन बदलने की आवश्यकता नहीं है । व्यक्ति किसी भी जाति या आजीविका वाला हो वह धर्म की शरण में जा सकता है। उसे मात्र सदाचारी होने की आवश्यकता है, कर्म उसका शुद्ध होना चाहिए । नारी जीवन का हित-सुख : बौद्ध धर्म में नारी जीवन के विभिन्न प्रसंगों पर विद्वानों ने विशेष प्रकाश डाला है 125 धर्म और संघ की दृष्टि से नारियों के प्रति भगवान बुद्ध का विशेष दृष्टिकोण भी रहा है। किन्तु समाज की दृष्टि से उन्होंने नारी को गृहस्थ जीवन की आधारशिला माना है। उसके कर्त्तव्यों का भी निर्देश किया है। एक बार गृहस्थ उग्गह ने भगवान् से यह निवेदन किया कि मेरी ये लड़कियाँ पति के कुल जाएँगी। भगवान् इन्हें ऐसा उपदेश दें, जो दीर्घकाल तक इनके हित तथा सुख का कारण हो । भगवान् ने कहा - कुमारिओं ! माता-पिता तुम्हें जिस किसी भी पति को सौंपे, तुम उसके सोकर उठने से पूर्व उठो, उसके सोने के बाद सोओ, आज्ञाकारिणी रहो, अनुकूल व्यवहार करो तथा प्रियवादिनी बनो। पति के गौरवभाजन जनों – माता-पिता, श्रमणों, ब्राह्मणों का सत्कार करो। स्वामी का जो भी शिल्पकार्य हो, चाहे ऊन का हो या कपास का हो, उसमें पूर्ण दक्षता प्राप्त करो, अप्रमादी होकर उसकी व्यवस्था करने में यथोचित सहयोग करो। स्वामी के भृत्यगणों के कार्य की पूर्ण जानकारी रखो। रोगियों की भरपूर सेवा-शुश्रूषा करो। स्वामी के धन-धान्य आदि का यथाशक्य संरक्षण करो। ऐसी नारी धर्मस्थिता, सत्यवादिनी, शीलवती कहलाती है तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 35 www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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