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प्राणिमात्र के प्रति प्रेम :
सुत्तनिपात में प्राणिमात्र के प्रति प्रेम करने का उपदेश दिया गया है। वहां कहा गया है कि शान्त पद (निर्वाण ) की प्राप्ति के इच्छुक मनुष्य को चाहिए कि वह योग्य तथा अत्यन्त सरल बने । उसकी बात मृदु, सुन्दर और विनम्रता से युक्त हो । वह सन्तोषी हो, अल्पकृत्य व अल्पवृत्तिवान् हो, इन्द्रियसंयमी व अप्रगल्भ हो । सदैव निर्दोष रहने का प्रयत्न करे। उपासक/ साधक की यह भावना रहे कि सभी प्राणी सुखी हों, सभी का कल्याण हो और सभी सुखपूर्वक रहें । जंगम या स्थावर, दीर्घ या महान्, मध्यम या ह्रस्व, अणु या स्थूल, दृष्ट या अदृष्ट, दूरस्थ या निकटस्थ, उत्पन्न या उत्पत्स्यमान् जितने भी प्राणी हैं, सभी सुखपूर्वक रहें। 10 एक-दूसरे की प्रवंचना न करें, अपमान न करें, वैमनस्य के कारण परस्पर में दुःख देने की भावना न करें। माता जिस प्रकार स्वयं की चिन्ता न कर अपने इकलौते पुत्र का संरक्षण करती है उसी प्रकार का असीम प्रेम व्यक्ति प्राणिमात्र के प्रति करे ।" शत्रुता को छोड़कर अखिल संसार के प्रति असीम प्रेम बढ़ाये । खड़े रहते, चलते, बैठते, सोते व जागृत रहते समय इसी प्रकार की स्मृति सजग रखनी चाहिए । यही ब्रह्नविहार है । प्राणियों के प्रति इस प्रकार की प्रेम भावना व्यक्ति को सदाचारी बनाती है। वही मुक्ति का पथिक बनता है।
पंचशील का आचरण :
बौद्ध आचार-संहिता में हिंसा, चौर्य, असत्य भाषण, मिथ्याचार तथा सुरा, मेरय, मद्य आदि नशीली चीजों से विरत रहना - ये उपासकों के पंचशील माने गये हैं। इन्हीं को पंच शिक्षापद भी कहा गया है। इन पांच शिक्षापदों की पृष्ठभूमि में दस उद्देश्य निहित हैं- 1. संघ की भलाई, 2. संघ की सुविधा, 3. दुष्ट व्यक्तियों का निग्रह, 4. शीलवान् भिक्षुओं का सुखपूर्वक विहार, 5. आश्रमों का संयमन, 6. श्रद्धावानों में अधिक श्रद्धा की जागृति, 7. अश्रद्धावानों में अधिक श्रद्धा सम्पन्नता, 8. भावी जन्मों के आश्रवों का प्रतिघात, 9. सद्धर्म की स्थिति तथा 10. विनय पर अनुग्रह । इन दस उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रातिमोक्ष के भी नियम बनाये गये हैं । 12
बौद्धधर्म में सदाचार को शील कहा जाता है। शील का पालन प्रत्येक बौद्धों के लिए आवश्यक है । जो व्यक्ति शीलों का पालन नहीं करता वह अपने को बौद्ध कहने का अधिकारी नहीं समझा जाता । शील से मन, वाणी और काया ठीक होते हैं। सद्गुणों के धारण या शीलन के कारण ही उसे शील कहा जाता है । संक्षेप में शील का अर्थ है- सब पापों का सेवन न करना, पुण्य का संचय तथा अपने चित्त को परिशुद्ध रखना । भगवान् ने कहा है कि जिसमें आकांक्षाएँ बनी हुई हैं वह चाहे नंगा रहे, चाहे जटा बढ़ाए, चाहे कीचड़ लपेटे, . चाहे उपवास करे, चाहे जमीन पर सोये, चाहे धूल लपेटे और चाहे उकड़ बैठे, पर उसकी शुद्धि नहीं होती।'4 असली शुद्धि तो शील- पालन से होती है। धम्मपद (गा. 654) में शीलवान् व्यक्ति के गुणों को बतलाते हुए तथागत ने कहा है- पुण्य, चन्दन, तगर या चमेली किसी की भी सुगन्ध उल्टी हवा नहीं जाती किन्तु सज्जनों की सुगन्ध उल्टी हवा भी जाती है, सत्पुरुष सभी दिशाओं में सुगन्ध बहाता है।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 118
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