SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विद्युत् सचित्त है या अचित्त? यह कोई हमारे आग्रह का विषय नहीं है। विद्युत् का प्रयोग व्यावहारिक है या अव्यावहारिक? इस प्रश्न पर चिन्तन करना हमारे अधिकार का विषय नहीं है। सब अपनी परम्परा को मानने और उसके अनुसार व्यवहार करने में स्वतंत्र हैं। हमारा प्रतिपाद्य इतना ही है कि व्यवहार और अव्यवहार की समस्या के आधार पर यथार्थ को नहीं बदला जा सकता। यद्यपि प्रस्तुत लेख में आगम के साक्ष्य उद्धृत किए गए हैं, फिर भी संलग्न रूप में आगम, चूर्णि और वृत्ति के कुछ उद्धरण प्रयुक्त करना अपेक्षित मानता हूँ। बादर तेजसकाय मनुष्य क्षेत्र से बाहर नहीं कहि णं भंते। बादरतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णता? ___ गोयमा। सट्ठाणेणं अंतोमणुस्सखेत्ते अड्डाइजेसु दीव-समुद्देसु निव्वाघाएणं पण्णरससु कम्मभूमीसु, वाघायं पडुच्च पंचसु महाविदेहेसु, एत्थ णं बादरतेउक्काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। ___ उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे। (पण्णवण्णा 2/7) - भंते। पर्याय बादर तैजसकायिक जीवों के स्थान कहाँ प्रज्ञप्त हैं? - गौतम । स्वस्थान की अपेक्षा बादर तैजसकायिक जीवों का क्षेत्र मनुष्य क्षेत्र से कुछ न्यून है। निर्व्याघात स्थिति में अढाई द्वीप समुद्रों और पन्द्रह कर्मभूमियों में है। व्याघात स्थिति में वे पांच महाविदेह क्षेत्रों में है। पर्याप्त बादर तैजसकायिक जीवों का यह अन्त:क्षेत्र प्रज्ञप्त है। उपपात की अपेक्षा बादर तैजसकायिक जीव लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से तैजसकायिक जीव लोक के असंख्यातवें भाग में, स्वस्थान की अपेक्षा बादर तैजसकायिक जीव लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। अचित्त पुद्गल : प्रकाश और ताप अत्थि णं भंते । अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति? उज्जोवेंति? तवेंति? पभासेंति? हंता अत्थि। कयरे णं भंते। ते अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति? उज्जोवेंति? तवेंति? पभासेंति? कालोदाई। कुद्धस्स अणगारस्स तेय-लेस्सा निसट्ठा समाणी दूरं गता दूरं निपतति, देसं गता देसं निपतति, जहिं जहिं च णं सा निपतति तहिं-तहिं च णं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति । एतेणं कालोदाई! ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति। (भगवई 7/229, 230) 24 | 24 - तुलसी प्रज्ञा अंक 118 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy