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________________ अट्ठकवि (अर्हद्दास) तेरहवीं शताब्दी के ही एक जैन ब्राह्मण थे, जिनके पिता का नाम नागकुमार था। वे कन्नड़ भाषा के प्रकांड विद्वान् थे। इसी भाषा में उन्होंने अट्ठम नामक एक महत्त्वपूर्ण ज्योतिष-ग्रंथ का निर्माण किया, जिसमें शकुन, ध्वनि-विचार, नक्षत्र-फल आदि विषयों का विवेचन किया गया है। इसकी लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसका अनुवाद तेलगू भाषा में आन्ध्रप्रदेश के भास्कर नामक विद्वान् ने 15वीं शताब्दी में किया। महिमोदय (17वीं शती) जो कि लब्धिविजयसूरि के शिष्य थे, ज्योतिष के मर्मज्ञ विद्वान् थे। उन्होंने तीन ग्रंथों की रचना की, जिनके नाम क्रमश: ज्योतिष-रत्नाकर, गणित साठ सौर अर्थात् गणित-सार-सौष्ठभ तथा पंचांगानयन विधि है। ज्योतिष-रत्नाकर में मुहूर्त, जातक एवं संहिता सम्बन्धी विषयों का उल्लेख है तथा पंचांगानयन विधि में पंचांग-निर्माण सम्बन्धी अनेक सारणियाँ प्रस्तुत की गयी हैं।22 मेघविजयगणि नामक प्रकाण्ड ज्योतिर्विद का जैन ज्योतिष के इतिहास में विशिष्ट स्थान है। इनका समय 1680 ई. माना जाता है। इन्होंने मेघ-महोदय, उदय-दीपिका, रमल शास्त्र, हस्त संजीवन आदि संहिता एवं सामुद्रिक शास्त्र विषयक अनेक एवं अनुपम ग्रंथों की रचना की है।23 लब्धिचन्द्रगणि खरतरगच्छीय कल्याण निधान के शिष्य थे। उन्होंने 1684 ई. (वि.सं. 1751) में जन्मपत्री पद्धत्ति नामक एक व्यवहारोपयोगी ज्योतिष-ग्रंथ की रचना की, जिसमें जन्मपत्री के सामान्य नियमों के साथ-साथ गणित के विषयों का भी वर्णन किया है।24। बाघजीमुनि (1726 ई.) पार्श्वचन्द्रगच्छीय परम्परा के एक प्रमुख जैनाचार्य हैं। इन्होंने तिथि सारणी नामक एक ज्योतिष-ग्रंथ लिखा है। पंचांग-निर्माण की विभिन्न विधियों की इसमें मीमांसा की गयी है। मकरन्द (14वीं शती) की मकरन्द सारणी की तरह यह ग्रंथ भी विशेष महत्त्वपूर्ण एवं लोकप्रिय रहा है। यह भी समझा जाता है कि बाघजी मुनि द्वारा इसके अतिरिक्त मुहूर्त सम्बन्धी दो-तीन और ग्रंथों की रचना की गयी, पर उनकी पांडुलिपियाँ वर्तमान में अनुपलब्ध हैं।25 . उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ज्योतिष वाङ्मय में जैनाचार्यों का विशिष्ट अवदान है। जैनाचार्यों ने स्वतन्त्र रूप से अपनी लेखनी का प्रयोग इस शास्त्र में किया है। जैन आगमों में यत्र-तत्र अनेक ज्योतिषीय सिद्धान्त न्यूनाधिक रूप से सन्निहित तो हैं ही, एतद् विषयक अनेक ग्रन्थ तीसरी एवं चौथी शताब्दी में रचे गये व यह क्रम अनवरत रूप से पुष्पित व पल्लवति होता रहा है। जैनाचार्यों ने ज्योतिष शास्त्र विषयक विपुल साहित्य का सृजन किया जो कि भारतीय प्राचीन ज्योतिष के विकास क्रम को समझने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। लेकिन खेद का विषय है कि जैन ज्योतिषाचार्यों की अनेक ज्योतिष कृतियाँ या तो अनुपलब्ध हैं या फिर इसका अधिकांश भाग अप्रकाशित एवं उपेक्षित हैं । यद्यपि अनेक विद्वानों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ है, फिर भी इस दिशा में विशेष रूप से अन्वेषण की आवश्यकता है। अनेक ग्रन्थागारों में एतद् विषयक सामग्री प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। हमें उन्हें धूलधूसरित एवं काल का ग्रास होने से बचाना होगा, तभी हमारे द्वारा जैन ज्योतिषाचार्यों के अनमोल व विशिष्ट अवदान का मूल्यांकन किया जा सकेगा। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 - _-97 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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