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अनेकान्तवाद की प्रासंगिकता
-सिद्धेश्वर भट्ट
भारतीय संस्कृति के विविध रंगों और बहआयामी पटल में श्रमण परम्परा का अनूठा योगदान रहा है। श्रमण परम्परा के तीन प्रमुख आधार स्तम्भ रहे हैं। पहला है 'सम' जिसका तात्पर्य है सर्वजीव समभाव । दूसरा है 'शम' जो आत्म कल्याण हेतु त्याग-तपस्या एवं इन्द्रिय-संयम पर विशेष महत्व देता है। तीसरा स्तम्भ है 'श्रम' जो अपने उत्कर्ष के लिए परमुखापेक्षी न होकर स्वावलम्बन एवं स्व पुरुषार्थ का उपदेश देता है। ये तीनों विचार एवं आचार के सिद्धान्त आज भी उतने ही सार्थक एवं उपयोगी हैं जितने वे उस समय थे जब भगवान महावीर एवं उनके पूर्ववर्ती तैवीस तीर्थंकरों ने इनका प्रणयन किया था।
श्रमण परम्परा का मूल आधार अनेकांतवादी दृष्टि है। इसके अनुसार समस्त चराचर विश्व एवं उसके पदार्थ अनंत धर्मात्मक हैं। प्रत्येक वस्तु में देश-कालस्थिति के भेद से अनेकविध द्रव्य, गुण और पर्याय उत्पन्न होते हैं और समाप्त होते हैं। कोई व्यक्ति जिस रूप में किसी वस्तु को देखता है, उसका स्वरूप उतना या वैसा ही नहीं है। मनुष्य की दृष्टि सीमित है परन्तु वस्तु का स्वरूप असीम है। उसमें अनन्त धर्म एवं अनन्त प्रदेश होते हैं। जैन दर्शन के अनुसार किसी वस्तु के बारे में भांति-भांति के विचार हो सकते हैं और वे परस्पर विरोधी भी हो सकते हैं। परन्तु उनमें भी सामंजस्य है, अविरोध है और जो उसे भली-भांति देख सकता है वही वास्तव में तत्वदर्शी है। परस्परविरोधी विचार 'स्याद् अस्ति' और 'स्याद् नास्ति' अर्थात् 'है भी' और 'नहीं भी है' के रूप के व्यक्त किए जा सकते हैं और उनमें अविरोध भी देखा जा सकता है। यह तथ्य आज के परमाणविक वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। अतः यह विचार आगम सम्मत होने के साथ-साथ विज्ञान सम्मत भी है। विरोध के स्वीकार और विरोध के परिहार का यह अनूठा सिद्धान्त
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2001
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