________________
अपेक्षा दूषक होता है, उसी प्रकार एक ही वस्तु में विविध अपेक्षाओं से सत्त्व-असत्त्वादि विविध धर्म रह सकते हैं; इसलिये भी विरोध नहीं है।
इसी प्रकार अनेकांतवाद की किसी न किसी रूप में सर्वमत सम्मत्ता उन्होंने भलीभांति प्रमाणित कर वे लिखते है
प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है, इसमें किसी वादी को विवाद भी नहीं है। यथा सांख्य लोग सत्त्व, रजः और तम - इन भिन्न स्वभाव वाले धर्मों का आधार एक 'प्रधान' (प्रकृति) मानते हैं। उनके मत में प्रसाद, लाघव, शोषण, अपवरण, सादन आदि भिन्न-भिन्न गुणों का 'प्रधान' से अथवा परस्पर में विरोध नहीं है। वह प्रधान' नामक वस्तु उन गुणों से पृथक् ही कुछ हो सो भी नहीं है, किन्तु वे ही गुण साम्यावस्था को प्राप्त करके 'प्रधान' संज्ञा को प्राप्त होते हैं। और यदि ऐसे हों, तो प्रधान भूभा (व्यापक) सिद्ध होता है। यदि यहाँ पर कहा कि उनका समुदाय प्रधान एक है, तो स्वयं ही गुणरूप अवयवों के समुदाय में अविरोध सिद्ध हो जाता है। वैशेषिक आदि सामान्य स्वीकार करते हैं। एक ही पृथ्वी स्वव्यक्तियों में अनुगत होने से सामान्यात्मक होकर भी जलादि से व्यावृत्ति कराने के कारण विशेष कहा जाता है। उनके यहाँ 'सामान्य ही विशेष है' इस प्रकार पृथिवीत्व आदि को सामान्य-विशेष माना गया है। अतः उनके यहाँ भी एक आत्मा के उभयात्मकपन विरोध को प्राप्त नहीं होता। बौद्धजन कर्कश आदि विभिन्न लक्षणवाले परमाणुओं के समुदाय को एकरूप स्वलक्षण मानते हैं। इनके मत में भी विभिन्न परमाणुओं में रूप की दृष्टि से कोई विरोध नहीं है। विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार बौद्ध एक ही विज्ञान को ग्राह्याकार, ग्राह्यकाकार और संवेदनाकार- इस प्रकार त्रयाकार स्वीकार करते ही हैं। सभी पूर्वावस्था को कारण और उत्तरावस्था को कार्य मानते हैं । अतः एक ही पदार्थ में अपनी पूर्व और उत्तर-पर्यायों की दृष्टि से कारण-कार्य-व्यवहार निर्विरोधरूप से होता है। उसी तरह सभी जीवादि पदार्थ विभिन्न अपेक्षाओं से अनेक धर्मों के आधार सिद्ध होते हैं।
___अनेकांत के उपदेश का प्रयोजन बताते हये आचार्य अमृतचंद्र सूरि लिखते हैं"अनेकांत के ज्ञान के बिना आत्मवस्तु की प्रसिद्धि (ज्ञान) नहीं हो सकती है।''
आचार्य समन्तभद्र इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखते हैं कि-''अनेकांत-दृष्टि ही सच्ची दृष्टि है तथा एकांत मान्यतायें असत् सिद्ध होती हैं, इसलिये अनेकांत-दृष्टि से रहित सभी मान्यताओं को मिथ्या कहा गया है।" 12 ।
वस्तुतः विरोध में भी अविरोध की स्थापना अनेकांतवाद की कृपादृष्टि के बिना संभव नहीं है। सभी विद्वानों ने अनेकांतमय-चिन्तन और प्ररूपण को विरोध-नाशक होने से अनेकांत की प्रबलता का समर्थन किया है। 4
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अनेकांत जहां प्रत्येक वस्तुत्व में परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मों को अविरोधीभाव से युगपत् रहने की बात कहता है, वहीं अनेकांत का सिद्धान्त व्यक्ति के तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 20016
- 91
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org