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अनेकान्त का सामाजिक पक्ष
- श्रीमती रंजना जैन
वर्तमान-युग व्यावहारिक उपयोगिता का युग है। जो वस्तु या सिद्धान्त व्यावहारिक उपयोगिता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है, वह लोकमान्य नहीं होता है, अतः आज यह अत्यन्त आवश्यक हो जाता है कि प्रत्येक धार्मिक सिद्धान्त की व्यावहारिक उपयोगिता का गवेषणापूर्वक निर्णय करके सक्षम पद्धति से उसका प्रतिपादन किया जाये ताकि वर्तमान परिस्थितियों में उसकी लोकमान्यता बनी रहे।
. वस्तुतः यह समीक्षा मात्र लोकमान्यता के लिये ही अपेक्षित नहीं है, अपितु यह इसलिये भी जरूरी है कि उस सिद्धान्त की एवं उस सिद्धान्त के प्ररूपकों की सार्थकता प्रमाणित हो सके अन्यथा वे सिद्धान्त कोरी गल्प या वैचारिक खुरापात ही सिद्ध होंगे तथा उनके प्रतिपादकों की प्रामाणिकता भी संदिग्ध हो जायेगी। इन्हीं दृष्टियों को समक्ष रखते हये मैंने इस आलेख में अनेकान्तवाद' सिद्धान्त के सामाजिक पक्ष पर विचार प्रस्तुत करने का निर्णय लिया है।
प्रथमतः अनेकांत का सामान्य-स्वरूप यहाँ विचारणीय है। आगमग्रंथों में अनेकांत का लक्षण निम्नानुसार कहा गया है.---'को अणेयंतोणाम?- जच्चंतरतं अर्थात् अनेकांत किसको कहते हैं?—इसका उत्तर है कि जात्यंतरभाव को अनेकांत कहते हैं। अभिप्राय यह है कि अनेक धर्मों या स्वादों के एकरसात्मक मिश्रण से जो जात्यन्तरपना या स्वाद उत्पन्न होता है, वही 'अनेकांत' शब्द का वाच्य है।
इसी बात को और स्पष्ट करते हये समयसार के टीकाकार 'आचार्य अमृतचंद्र सूरि' लिखते हैं कि- एक वस्तुनि वस्तुत्व-निष्पादक-परस्पर विरुद्ध शक्तिद्वय प्रकाशनमनेकान्तः अर्थात् एक वस्तु में वस्तुत्व की उपजाने वाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है। इसी बात को न्याय की शैली में परिभाषित करते हुए (आचार्य भट्ट) अकलंकदेव लिखते हैं
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अंक 113-114
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