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वर्तमान समस्याओं के समाधान में अनेकान्त की उपयोगिता
परमागमस्य बीजं निषिद्धं जात्यन्धसिन्धुरविंधानम् । सकलनय विलसितानां विरोध-मथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है कि जन्मान्ध पुरुषों के हस्त विधान का निषेधक समस्त नयों से विलसित वस्तु स्वभाव के विरोध का शामक, उत्तम जैन शासन का बीज अनेकान्त सिद्धान्त को मैं नमस्कार करता हूँ।
-डॉ. हेमलता बोलिया
विश्व का प्रत्येक प्राणी आज समस्याओं से आक्रान्त है । भले ही विज्ञान के नित-नये आविष्कारों ने उसके जीवन को समुन्नत और समृद्ध किया है। यह सब विकास एकांगी और एकपक्षीय है। जहाँ भौतिक समृद्धि ने उसके जीवन को सुविधाभोगी और विलासी बनाया तो वहीं दूसरी ओर वह आध्यात्मिकता से दूर होता चला गया और परिणामस्वरूप मानसिक तनाव और जीवन में असन्तुलन आदि समस्याओं से घिरता चला गया । विज्ञान अपनी शोध से जैसे-जैसे समस्याओं के समाधान खोजने का प्रयास करता रहा वैसे-वैसे समस्याएँ सुरसा के मुख की तरह बढ़ती गयी। जीवन का कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं रहा है, चाहे वह पारिवारिक क्षेत्र हो, धर्म और दर्शन का क्षेत्र हो, राजनीति और पर्यावरण का क्षेत्र हो अथवा आर्थिक क्षेत्र हो । सर्वत्र व्यक्ति अपने मत को मनवाने का आग्रह करता है और इसी कारण विद्रूपता का सर्वत्र साम्राज्य दिखाई देता है। परिवार संयुक्त से एकाकी और एकाकी से एकल बनता जा रहा है । पारस्परिक झगड़ों से संत्रस्त बालक असामाजिक तत्वों के हाथ में पड़कर नशा खोरी और व्यसनों से ग्रस्त हो रहे हैं। दूसरी ओर धर्म दर्शन के क्षेत्र में अपनी मांग मनवाने के लिये अन्य मत को
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तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2001
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