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2001 का वर्ष बीत गया, 2002 का वर्ष आ गया है। प्रश्न है 2002 का वर्ष कैसा होगा? विश्व के वृत्त पर घटित होने वाले घटना चक्र को देखते हुए कहा जा सकता है कि विश्व अभी भी हिंसा से अहिंसा की ओर जाने की बात नहीं सोच रहा । अशांति से शांति की ओर जाने की बात नहीं सोच रहा । एक मतिभ्रम पैदा किया जा रहा है और व्यक्ति हिंसा को ही सार्थक व समाधान का हेतु मान रहा है। जब तक यह अवधारणा न बदलेगी, तब तक नया वर्ष कल्याणकारी होगा- यह कहना कठिन है।
समझदार व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि वह अध्यात्म की दिशा में गतिशील बनें। विभीषिका चाहे युद्ध की हो, अभाव की हो या संत्रास की हो, इनसे बचने का राजमार्ग है - अध्यात्म की चेतना का जागरण | अहिंसा की चेतना जागे । प्राणी मात्र के प्रति आत्म-तुला का भाव जागे। सभी जीवों के प्रति समानता की अनुभूति जागे । नया वर्ष उस चेतना के जागरण का हेतु बने तो नए वर्ष का स्वागत किया जाना चाहिए। हम संकल्प करें - नए वर्ष को स्वागत योग्य बनाना है, न कि तिरस्कार योग्य ।
हिंसा, युद्ध, लड़ाई, अशांति का परिणाम आम जनता को भोगना पड़ता है। युद्ध का अर्थ है गरीबी बढ़ाना। युद्ध का अर्थ है - अभाव बढ़ाना। युद्ध का अर्थ है - आर्थिक स्थिति को अस्थिर बनाना । गरीबी, अभाव, आर्थिक अस्थिरता किसी के लिए हितकर नहीं, किसी
प्रिय नहीं। दूसरा महायुद्ध यूरोप व एशिया की कुछ भूमि पर हुआ पर आर्थिक दृष्टि से पूरा संसार उससे पीड़ित हुआ। पूरा संसार उससे प्रभावित हुआ। हिंसा और अशांति किसी के लिए कल्याणकारी नहीं । अहिंसा और शांति से ही कल्याण मार्ग को प्रशस्त किया जा सकता है। युद्ध करने, आवेश करने से कभी कल्याण नहीं हो सकता। हम मंगल भावना करें, अहिंसा और शांति के प्रति रूझान बढ़े । युद्ध जैसी विकट स्थितियां न रहे । अध्यात्म की, अहिंसा की चेतना का जागरण हो। लेकिन पदार्थ का मोह चेतना में इतना व्याप्त है कि मनुष्य अध्यात्म की बात सोचने के लिए ही तैयार नहीं। आवेश, क्रोध, लोभ आदि भाव चेतना पर पर्दा डालते हैं, आत्मा ढ़की हुई रह जाती है, आत्मा पर आवरण आया हुआ है, इसीलिए व्यक्ति सही दिशा में सोच नहीं सकता। पर्दे में बहुत कुछ छिपाया जाता है। पहले महिलाएं पर्दे में रहती थी । एक व्यक्ति ने कहा- पर्दा नहीं उठना चाहिए। क्योंकि हजारों कुरूप महिलाओं की कुरूपता पर्दे में छिप जाती है। यदि पर्दा उठ गया तो उन महिलाओं का क्या होगा ? कुरूपता को भी छिपाया जाता है और चीजों को भी छुपाया जाता है। चेतना पर भी एक पर्दा, एक आवरण आया हुआ है। वह नहीं हटेगा तब तक यथार्थ कैसे सामने आ सकेगा ? आवरण के कारण व्यक्ति भ्रान्ति में जी रहा है। एक मृगमरीचिका, एक व्यामोह व्यक्ति के सामने हैं और वह नहीं समझ पा रहा है कि कहां जाएं ? मृगमरीचिका से कभी प्यास नहीं बुझाई जा सकती। व्यक्ति नहीं समझ पा रहा है कि वह कहां जाकर अपनी प्यास बुझाए ? हम चिन्तन करें, धार्मिक लोग और भी ज्यादा चिन्तन करें - उत्तेजना को कैसे उपशांत कर सकें ? आवेश को कैसे अनवेश में बदल सकें ? मोह को कैसे वीतरागता में ले जाएं ?
तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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