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भगवान् महावीर और बुद्ध के समय भारत में वैचारिक संघर्ष और दार्शनिक विवाद अपने चरम सीमा पर था। जैनागमों में 363 भेदों का वर्णन है जैसा कि सूत्रकृतांग नियुक्ति में लिखा है
असिइसयं किरियाणं अक्किरियाणं च होइ चुलसीती । अन्नाणिय सत्तटटी वेणइयाणं च बत्तीसा । तेसि मताणुमतेणं पन्नवणा वण्णिया इहऽज्झयणे । सब्भावणिच्छयत्थं समोसाणमाहु तेणं ति ॥
दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त में 62 मतों का वर्णन है ।
वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता थी, जो लोगों को आग्रह एवं मतान्धता के ऊपर उठने के लिए दिशा-निर्देश दे सके। भगवान बुद्ध ने इसके लिए विवाद - पराङमुखता को अपनाया । सुत्तनिपातं में वे कहते हैं कि मैं विवाद के दो फल बताता हूं। एक तो वह अपूर्ण व एकांगी होता है और दूसरे कलह एवं अशान्ति का कारण होता है, अतः निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझने वाला साधक विवाद में न पड़े। बुद्ध
अपने युग में प्रचलित सभी परस्पर विरोधी दार्शनिक दृष्टिकोणों को सदोष बताया और अपने को किसी भी दार्शनिक मान्यता के साथ नहीं बांधा। वे कहते हैं कि पण्डित किसी दृष्टि या वाद में नहीं पड़ता ।' बुद्ध की दृष्टि में दार्शनिक वाद-1 -विवाद निर्वाण मार्ग साधक के कार्य नहीं है। अनासक्त पुरुष के पास विवाद रूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। इसी प्रकार भगवान महावीर ने भी आग्रह को साधना का सम्यक् पथ नहीं समझा। उन्होंने कहा है'
सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं ।
जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया ||
अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों की निन्दा करते हुए जो गर्व से उछलते हैं वे संसार (जन्म-मरण की परम्परा) को बढ़ाते हैं ।
इस प्रकार भगवान महावीर और भगवान बुद्ध दोनों ही उस युग की आग्रहवृत्ति और मतान्धता से जन-मानस को मुक्त करना चाहते थे, फिर भी बुद्ध और महावीर की दृष्टि में थोड़ा अन्तर था। जहां बुद्ध इन विवादों से बचने की सलाह दे रहे थे वहीं महावीर इनके समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत कर रहे हैं जिसका नाम है अनेकान्तवाद । आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथ में लिखा है'
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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्ध सिन्धुर विधानम् । सकलनय विलसितानां विरोध मथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
जात्यन्ध पुरुषों के हस्ति-विधान का निषेध करने वाले, समस्त नयों से प्रकाशित वस्तु स्वभावों के विरोधों को दूर करने वाले उत्कृष्ट जैन सिद्धान्त में जीवनभूत या बीजभूत एक पक्ष रहित अनेकान्त को मैं नमस्कार करता हूँ।
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1 तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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