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ब्रह्म भी, माया भी पुरुष - प्रकृतिरूपी "पूर्ण मिदंः पूर्ण मिदं" यही
या यों भी
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"एको सत्य विप्र बहुधा वदंति "
तथा, उपनिषदीय कथन"यहां सभी से पहले वह था
एक मात्र ब्रह्म... आत्मन अन्य नहीं था कुछ, किंचित नहीं अन्यथा चेष्टारत इसी परम ने सोचा... क्यों न
लोकों का मैं करूं सृजन " (हो जाऊं मैं बहुवचन)
"सबसे पहले मात्र ब्रह्म था एक-एक कर यही
एक से सर्व हुआ
अनेक हुआ" "एक वही
अनेक बन वह विद्यमान है सबमें ही " ।
प्रचलित थे मतवाद कई
और इन्हीं में कितने ही
तेरे-मेरे घेरे में थे बंटे, परस्पर प्रतिरोधी एकांगी दावे, या कि आश्वासन मिथ्या भी,
अस्तित्व कैसा ? कैसे थे प्रश्न सनातन? जिनकी चर्चा पर आधारितदर्शन... विज्ञान ?
महावीर को मान्य नहीं था
"यह" था "वह" कोई एकवचन व्यर्थ वाद-विवाद और खंडन-मंडन आक्षेप अन्य पर तथा स्वयं का अभिवंदन पर जो था एकवचन, द्विवचन बहुवचन महावीर ने क्रांतदृष्टि से
किया इन्हीं का संशोधन
समन्वय व नव्यसृजन
अनेकांत नाम देकर एक नवदर्शन, एक नवविज्ञान
तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2001
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क्या है यह अनेकांत ? महावीर के सम्मुख भी था प्रश्नजगत का मूल एक है या अनेक ? वेदांत दृष्टि अद्वैत की ब्रह्मकेन्द्रित, आत्मकेन्द्रित, चेतनाकेन्द्रित
सांख्य की दृष्टि द्वैतवादी जगत के मूल दो प्रकृति व पुरुषो
प्रकृति अचेतन - पुरुष चेतन पर महावीर ने कहाअस्तित्व तो एक ही
उसमें अचेतन-चेतन का भेद नहीं महावीर की दृष्टि एक नयी अद्वैतमयी पर गुण व क्रिया के जो लक्षण, विभेदन इन्हीं पर जो आधारित महावीर का द्वैत प्रतिपादन यो विश्व का मूल एक भी, अनेक भी एकता भी मौलिक, अनेकता भी मौलिक अनंत परमाणु, अनंत आत्माएं वस्तुतः अस्तित्व जो अनंत अनंत वही तो अनेकांत ।
अनेकांत की परिभाषा जो केवल एक दृष्टिरूप न हो
ऐसी अनेक धर्मात्मक वस्तु की स्वीकृति सापेक्ष रूप से
एक पदार्थ के अनेक धर्मों में से
अमुक धर्म को कहने वाली वचन-पद्धति
अनेकांत का अर्थ है
प्रत्येक पदार्थ, प्रत्येक आत्मा
अनंत अनंत गुणों से संयुक्त है अनंत शक्ति से सम्पन्न है अनेकांत वस्तु को अनंत दृष्टिकोण से देखना है वस्तु को अनेक धर्मात्मक बनाना है। वस्तु के अनंत पर्याय हैं, अनंतकोण हैं, पार्श्व है, पक्ष हैं ऐसी अनंतता अनेकांत है, परम सत्य है।
सापेक्ष दृष्टिकोण से जिन्हें देखा जाता है सापेक्षता का प्रतीक शब्द 'स्यात्' है
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