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________________ भावों का परिष्कार ही नहीं करता, बुराइयों का प्रवेश भी रोकता है। भगवान महावीर ने कहा—'दिआ वा राओ वा, एगवो वा परिसागवो वा, सुत्ते वा जागरमाणो वा-दिन में या रात में, अकेले में या समूह में, नींद में या जागरण में मैं वह आचरण नहीं करूंगा जो आत्मपरिधि से बाहर हो। इस एक सूत्र में कानून-कायदे, व्यवस्था, विधान, दण्ड या प्रायश्चित्त की कभी जरूरत ही नहीं पड़ती। जैनधर्म शुद्ध निश्चय का धर्म है। यहां प्रलोभन, भय, प्रदर्शन या प्रतिदान का उपक्रम स्वीकृत नहीं होता। धर्म के लिए धार्मिक को यह कहकर तैयार नहीं किया जा सकता कि तुम पाप करोगे तो नरक मिलेगा। किसी को मारोगे, पीटोगे तो नरक में तुम्हें भी तीक्ष्ण शस्त्रों से मारा, पीटा जाएगा। तुम अच्छा कार्य करोगे तो स्वर्ग मिलेगा। तुम्हारा परलोक सुधरेगा आदि। आज का बुद्धिवादी इन सब तथ्यों से प्रभावित भी नहीं होता। वह चाहता है धर्म का परिणाम-कषायों का उपशमन हो। आग्रह से मुक्ति हो। अनासक्त चेतना का विकास हो। परार्थ और परमार्थ भावों का उदय हो। कथनी और करनी में समानता हो। व्यक्ति को जीवन में धार्मिक दीखना ही नहीं, धार्मिक होना भी चाहिए। आज धर्म से परलोक सुधरने और मोक्ष मिलने की बात अवैज्ञानिक-सी लगती है। आज का मनुष्य धर्म का फल आज और अभी, इसी क्षण देखना/पाना चाहता है। वह मात्र पूजा, उपासना, क्रियाकाण्डों में धर्म को स्वीकृति नहीं देता है। इसलिए धर्म के परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से पुनः सोचना होगा कि धर्म सिर्फ मन्दिरों, उपासनाओं, धर्मग्रन्थों और प्रवचनश्रवण तक सीमित और रूढ़ न हो जाए, वह सीधा जीवन के व्यवहार और आचरण से जुड़े। एक धार्मिक व्यक्ति का नैतिक होना बहुत जरूरी है। धर्म के क्षेत्र में अगुआ हो और निजी जीवन में नैतिक भी न हो तो यह धर्म की विडम्बना होगी। अतः हमारी सोच धर्म के नए-पुराने मूल्यों का समन्वय कर इसे वार्तमानिक जीवन-शैली से जोड़े। हम इस धारणा से भी मुक्त बनें कि मात्र उपदेश से हम बदल जाएंगे, मात्र आयोजनों से कर्त्तव्य का निर्वहन हो जाएगा या फिर यह सोचकर बैठ जाएं कि जो आदत पड़ गई उसे बदलना अब कठिन है तो यह भावना हमें कर्मशून्य बना देगी। आशा की किरण भी छुप जाएगी सघन अन्धेरों में। हमें कार्य-कारण की परम्परा का सम्यग् ज्ञान कर परिवर्तन की दिशा में सक्रिय कदम बढ़ाना है। कार्य है तो कारण भी है, कारण है तो कार्य भी होगा। बीज में वृक्ष और वृक्ष में बीज का अस्तित्व छिपा रहता है। हमारा उपादान सदा से शुद्ध था। निमित्तों की पतों ने राग-द्वेष से उसे धुंधला कर दिया। निमित्त हट गया तो उपादान अभिव्यक्त हो गया । निमित्तों की शुद्धि का प्रयोग धर्माचरण का प्रतीक है, इस विश्वास को पुष्ट करना होगा। आत्म-नियन्त्रण और आत्मानुशासन की प्रक्रिया से हमें स्वयं को साधना होगा। क्योंकि आज जीवन में किसी का कोई अंकुश नहीं रहा। न स्वयं की इच्छाओं पर और न राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति पर। व्यक्ति समूह से जुड़ा है, अतः व्यक्ति और व्यवस्था तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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