________________
दोनों का परिष्कार अपेक्षित है। व्यक्ति के सुधार में कानून, विधि-विधान, व्यवस्था और परम्पराओं की पकड़ नहीं बदली तो व्यक्ति चाह कर भी ईमानदार, नैतिक नहीं रह सकता
और व्यवस्था, कानून आदि स्वस्थ हैं, सही हैं पर व्यक्ति के सोच की, कर्म की, चाह की, लक्ष्य की दिशा सही नहीं तो वह सबको अपने रंग में रंग लेगा। इसलिए महावीर ने व्यवहार और निश्चय, द्रव्य और भाव, व्यक्ति और समूह दोनों के परिष्कार को मूल्य दिया। क्योंकि प्रशासन में गलत शासक सम्पूर्ण देश को पतनोन्मुखी बना सकता है और पतनोन्मुखी प्रजा ईमानदार शासक को सत्ता तक पहुचने नहीं देती और पहुंच भी गया तो उसे सरकार में रहने नहीं देती।
आज हमें यदि सामुदायिक चेतना का विकास करना है तो इस उद्देश्य की सम्पूर्ति में हमें सहिष्णुता, सापेक्षता, सह अस्तित्व और सामञ्जस्य की भावना को आत्मसात करना होगा। क्योंकि सामुदायिकता वहीं खण्डित होती है जहां एक-दूसरे को समझने और सहने की तैयारी नहीं होती। अहं इतना ऊंचां उठ जाता है कि अपने सिवाय व्यक्ति किसी को सही मानने के लिए तैयार ही नहीं होता। परिणाम यह होता है कि आपसी व्यवहारों में, विचारों में और मनों में विभेदता की दीवारें खड़ी हो जाती हैं। इसलिए सहिष्णुता के अभ्यास के साथ संवेगों पर नियन्त्रण करना सीखना भी जरूरी है।
आज रोटी, मकान, कपड़े की समस्या से भी बड़ी समस्या है नैतिक चरित्र की। चाहे देश का राजनेता हो या धर्म का ठेकेदार। देश का उद्योगपति हो या वैज्ञानिक या न्यायाधीश। प्रश्न फाइलों में दर्ज राजनैतिक घोटालों का हो या मैच फिक्सिंग के अन्तहीन दौर का। अपहरण की घटनाओं में खरीद फरोख्त का सिलसिला हो या उग्रवादी आतंकवादी लोगों द्वारा निर्दोष हत्याओं का ताण्डव नृत्य । देश के चरित्र की ऐसी दयनीय दशा हो गई है कि सत्ता और सम्पदा ने जीवन मूल्यों को ताश के पत्तों की तरह खेलना शुरू कर दिया और तलाशते कानून-कायदे, अपराधियों की खोज में बिठाए गए जांच आयोग आज न अपराधी को दण्ड दे पाते हैं और न निर्दोष की झोली में न्याय और अधिकार डालते हैं। इन्सान से ज्यादा कीमत रिश्वत की हो गई। शासक हो या शासित जहां स्वार्थों की मन्दान्धता, विलासिता-सुखवाद और अहं संपोषण का प्रश्न खड़ा हुआ वहां सारे जीवन मूल्यों को ताक में रख दिया गया। यही कारण है कि आज आम आदमी का विश्वास ही उठ गया सरकार से, धर्म से और स्वयं से।
21वीं सदी के प्रारम्भ में ही भगवान महावीर की 26सौं वी जन्म जयन्ती मनाने का हमें स्वर्णिम अवसर उपलब्ध हो रहा है। यह सामान्य पर्व नहीं है। यह विचारक्रान्ति और व्यक्तिक्रान्ति का चनौतिभरा आह्वान है। प्रमाद, अज्ञान और अहं से मुक्त होकर हमें सामुदायिक चेतना जगानी है। हमें कुछ ऐसी लकीरें खींचनी हैं जो गलत कार्यों के लिए लक्ष्मण रेखा बने और सही कार्यों के लिए आदर्श के मानक।
__ इस अवसर पर हमें जैनत्व की संस्कृति को उजागर करना है। जैनधर्म विश्वधर्म बन सकता है-इस कसौटी पर सिद्धान्तों की समीक्षा करनी है। हमें स्वयं को देखना है
- तुलसी प्रज्ञा अंक 110
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org