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परिग्रह परिमाणाणुव्रती के उक्त तीनों गुण अनुवर्ती बन जाते हैं। परिग्रह परिमाणव्रतहमारी इच्छाओं पर नियंत्रण/नियमन कर सकता है। हमारी तृष्णा को निर्जीव बना सकता है। निर्धन व्यक्ति धनाभाव के कारण दुःखी है परन्तु अमीर व्यक्ति अपनी तृष्णा/लालसा के विस्तार के कारण दुःखी है। दोनों दुःखी हैं, उनके सिर्फ कारण या आधार बदले हैं।
(5) कामुकता अथवा यौन प्रवृत्ति की खुली अभिव्यक्ति आज एक बड़ा उद्योग बन चुकी है। प्रतिष्ठित लेखकों का एक बड़ा वर्ग अश्लील साहित्य और अश्लील पत्रिकाओं के माध्यम से पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव अवयस्क किशोरों पर डाल रहा है। फोनसेक्स, व्यभिचार, नेट-एडल्टरी और इन्टरनेट के सहयोग से यह जार-कर्म परवान चढ़ रहा है। आधुनिकता के सम्मोहन में आयातित अप-संस्कृति ने नारी को विज्ञापन का माध्यम बनाकर काम को कला और व्यापार के साथ जोड़कर एक घिनौना षड्यंत्र शुरू कर दिया है। ऐसे मोड़ पर ब्रह्मचर्य को शिक्षा का एक अभिन्न अंग स्वीकार किया जाना आवश्यक है।
शिक्षा में ब्रह्मचर्य की पवित्र भावना मूलक संदेश और कथानकों का समावेश करते हुए उसकी तेजस्विता का महिमा-गान युग की आवश्यकता है। क्योंकि ब्रह्मचर्य से ही देह-कांति और आत्मा की आभा प्रखर बनी रह सकती है। ब्रह्मचर्य सभी साधनाओं की आधार भूमि है।
काम व्यक्ति की सबसे बड़ी कमजोरी है। हजार योद्धाओं को पराजित करने वाला भी काम-सुभट से पराजित हो जाता है। अतः एक स्वस्थ नैतिक और सुसंस्कृत समाज की स्थापना के लिये ब्रह्मचर्य का नैतिक मापदण्ड अत्यन्त आवश्यक है। हमारे महाविद्यालयों में शिक्षा का नवीन ढ़ांचा इस प्रकार निर्मित किया जाये जिसमें “कामशिक्षा" विषय की स्वीकृत नीति के स्थान पर ब्रह्मचर्य की महनीय शिक्षा को पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाये।
उक्त पांचों अणुव्रतों को जीवन परिष्कार के संदर्भ में शिक्षा में सर्वोपरि स्थान दिया जाना मानवता के लोकोत्तर विकास और संरक्षण के लिये अपरिहार्य बन गया है।
राष्ट्रीय स्तर पर “अणुव्रत-अनुशीलन' को एक आंदोलन का रूप दिया जाना चाहिये।
- जीवन के सरोवर में-“अणुव्रत का सरोज" सत्य के आलोक को पाकर खिलता है। जिसका पराग है अहिंसा, अभिराम-पांखुडी है अचौर्य और अपरिग्रह, उस सुवासित का इष्ट फल है-ब्रह्मचर्य।
आइए, इस “अणुव्रत-के सरोज' से अपने घर आंगन को एवं सामाजिक/ राष्ट्रीय चरित्र को समुज्जवल बनाएं।
राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय-3 के सामने बीना (मध्यप्रदेश) 470 11 3
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000
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