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6. प्राकृत में असंयुक्त व्यंजन किसी समास के दूसरे या तीसरे शब्द के आदि में हो तो प्रायः उसमें वही विकार आता है जो स्वर मध्यवर्ती असंयुक्त व्यंजन में आता है। विवेकमंजरी का उदाहरण है -
—
नि + पुणं
निउणं ( गाथा 103 )
7. आदि में न, य, श, ष को छोड़कर शब्द के आदि में असंयुक्त व्यंजन में कोई परिवर्तन नहीं होता । विवेकमंजरी का उदाहरण द्रष्टव्य है -
य का परिवर्तन :
यदि
>
यथा
>
श का परिवर्तन :
शरीरं
शरणं
=
जइ
जह
सरीरं
( गाथा 114 )
सरणं
( गाथा 10 )
8. प्राकृत में भू धातु के लिए भव आदेश किया गया है। जिसके रूप विकल्प से हव धातु से भी चलते हैं।
जैसे - भवन्तु हवंतु भवति > होइ
( गाथा 81 )
( गाथा 5,96,97)
9. कगचजतदपयवां प्रायो लुक् ( 8 / 1 /177) नामक सूत्र के आधार पर प्राकृत में मध्यवर्ती क-ग-च-ज-त-द-प-य-व का लोप हो जाता है। यह प्रवृत्ति विवेक मंजरी प्रकरण में सर्वत्र दिखाई नहीं देती, एक ही स्थल पर इस सूत्र की अनुपालना की गई है, जैसे
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( गाथा 3,68 )
( गाथा 5 )
आत्महितम् >
आयहियं ( गाथा 5 )
अतीत
अईअ ( गाथा 14 )
अनुमोदना
>
अणुमोअणा ( गाथा 6 )
10. प्राकृत भाषा में खघथधभाम ( 8 / 1 /187 ) के अनुसार ख घथ ध भ का ह हो जाता है। यह प्रवृत्ति विवेकमंजरी प्रकरण में भी दिखाई देती है ।
(ख) ज्ञानप्रमुख (घ) श्लाघ्य
(थ) पद्मनाथ (ध) सुविधि (भ) दुर्लभ
V V V V V
प्रभु
त्रिभुवन
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000
नापमुहा ( गाथा 14 ) सलहिज्जइ ( गाथा 30 )
उमाह ( गाथा 14 ) सुविहि ( गाथा 11 ) दुलह ( गाथा 123 )
पहु ( गाथा 12 ) तिहुअण ( गाथा 13 )
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