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प्रभव, श्री उदायन, केशी, चिलातिपुत्र, मेघकुमार और पुण्डरीक, आर्द्रक कुमार, साधु कीर्तिधर, नन्दिसेन, करकण्डू, हल्ल, विहल्ल, शाल, महाशाल, सिंहगिरि आर्य महागिरि, आर्यरक्षित, शांब कुमार, प्रद्युम्नमुनि, कुमापुत्त और भद्रगुप्त आदि एवं अन्य महामुनि गण जो भयंकर भव-भ्रमण को नाश करने वाले हैं तथा जिनशासन रूप आकाश के विभूषण स्वरूप चन्द्रमा हैं, वे मुझे सिद्धि सुख को प्रदान करें ।
इस प्रकार मुनि - ऋषि आदि को प्रणाम कर आगे गाथा 55-59 में तीर्थंकरों की माताओं का एवं यतियों का नामोल्लेख किया गया है। जैसे सीतादेवी, सुलसा, राजीमती, मदनरेखा, दमयंती, आर्य चन्दनबाला, मनोरमा, विलासवती, अंजनासुंदरी, नर्मदासुन्दरी शिवा, धारिणी चिल्लाण देवी, प्रभावती, कलावती, रेवती, देवकी, ज्येष्ठा (भगवान महावीर की पुत्री), सुज्येष्ठा (चेटक की पुत्री), पद्मावती, नन्दा, भद्रा, सुभद्रा, ऋषिदत्ता, मृगावती आदि ये श्लाध्या महासतियां हैं।
लेखक द्वारा बताया गया है कि 24 तीर्थंकरों, अरहंतो, सिद्धों, आचार्यों, साधुओं, चैत्यों, सिद्धान्तों और पवित्र यतियों की आसातना मेरे द्वारा की गई हो तो वह दुष्कृत मिथ्या है। अतः पद, अक्षर और मात्राओं में अधिकता अथवा हीनता के लिए लेखक तीर्थंकरों की प्रकाशित वाणी को प्रमाण मानते हुए क्षमायाचना करता है । (ii) गुणों की सच्ची अनुमोदना
वीतरागियों द्वारा कथित धर्म अहिंसा लक्षण युक्त है। उसे गुणों के रत्नाकर रूप बताया गया है जो मोक्ष सुख का मार्ग है। यहां यतियों और श्रावक के क्रमशः 10 और 12 व्रतों के भेदों का उल्लेख किया है।
(iii) दुष्कृत्यों (पापों) की निन्दा
काल, जीव और भव- परम्परा को अनादि बताते हुए एकेन्द्रियादि, स्थावरजीव एवं त्रस, देवादि चतुर्गति, चौरासी लाख संख्या वाले जीव-योनियों में परिभ्रमण करते हुए भर्त्सित, त्यक्त, तिरस्कृत, हिंसित, स्नेहित, संघटित, विघटित, पीड़ित, कंपित, परितापित होते हुए जीवन को धारण किए रहते हैं। इन्हें कृत-कारित अनुमोदित आदि कर्मों के लिए मन-वचन-काय से क्षमा करता हूं तथा अपनी आत्मा को भी क्षमा करता हूं और मिथ्या दुष्कृतों की निन्दा एवं गर्हा करता हूं। इस प्रकार सभी आत्म तत्वों से क्षमायाचना की गई है, जिससे इनके प्रति मैत्री भाव परिणमित हो सके।
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क्षमा के पश्चात् प्रव्रज्या को महत्व देते हुए श्रमण आदि के लिए त्याज्य पापों में हिंसादि अठारह पापों को मन-वचन-काय से परित्याज्य कहा गया है । कुतीर्थ, गलत संगति एवं गलतवास, अपलाप का मार्ग एवं गलत कर्मों को प्रच्छन्न पाप, देह द्रव्य, परिवार, स्वजन जीव हिंसा एवं पूर्व में बांधे गए बैर भावों का परित्याग, प्राणिवध के जो अधिकरण (हल, मूसल उक्खल आदि) हैं, उनका मन-वचन-काय से तथा पन्द्रह कर्मादान ( कर्मागमन) के साधन परित्याग योग्य हैं; क्योंकि अंतिम श्वासों में पवित्र, अदूषित, गठीला शरीर भी कष्टपूर्वक छूट जाता है। इसीलिए चतुर्विध आहार का परित्याग
तुलसी प्रज्ञा अंक 110
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