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________________ अध्यात्मदर्शन जैनदर्शन में चेतना के विकास की अवधारणा - मुनि मदन कुमार इस जगत में मूलभूत तत्त्व दो हैं जीव और अजीव । इन दोनों का अस्तित्व जगत में अनादिकाल से है। जीव तत्त्व में चेतना है, जानने और देखने की प्रवृत्ति है तथा सुख-दुःख की अनुभूति है। जगत का कोई भी जीव चैतन्य से शून्य नहीं है। चैतन्य उसका स्वरूप है। उपयोग उसका लक्षण है। चेतना का विनाश न होना उसका स्वभाव है। जीव तत्त्व ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य गुण से संपन्न है। ये गुण सदैव उसमें बने रहते हैं। जीव सदाकाल जीव ही रहता है। अतीत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों में जीव का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। जीव की न कभी उत्पत्ति होती है और न कभी अन्त । इस लोक में अनंत-अनंत जीव विद्यमान हैं। जीव का जीवत्व नष्ट न होने से जीवों की संख्या न घटती है और न बढ़ती है। जीव का प्रतिपक्षी है-अजीव। वह भी गुण और शक्ति से संपन्न है। जीव की तरह अजीव तत्त्व का भी संपूर्ण लोक में अस्तित्व है। अजीव तत्त्व में न चैतन्य है, न ज्ञान और न दर्शन और न ही सुख-दुःख का संवेदन। यह एक सार्वभौम सच है कि जीव कभी अजीव नहीं बनता है और अजीव कभी जीव नहीं। जीव और अजीव दोनों अपने ही स्वरूप में रहते हैं। जीव और अजीव, जड़ और चेतन या प्रकृति और पुरुष के संयोग से इस सृष्टि की संरचना होती है। जैसे प्रयोगशाला में हाइड्रोजन के दो और ऑक्सीजन के एक अणु के मिलने से जल का निर्माण होता है वैसे ही जीव और पुद्गल द्रव्य के संयोग से सृष्टि का निर्माण होता है। मौलिक सत्य या अंतिम सचाई यह है कि न जीव की आदि, न अजीव की और न ही सृष्टि की। ये तीनों ही अस्तित्व की दृष्टि से 4000 % ] तुलसी प्रज्ञा अंक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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