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________________ ऐतिहासिकमहाकाव्य ऋषभायण में राज्य-व्यवस्था समणी मंगलप्रज्ञा अस्तित्व निरपेक्ष है, व्यक्तित्व सापेक्ष है। अस्तित्व स्थायी है, व्यक्तित्व परिवर्तनशील है। अस्तित्व कोरा उपादान है, व्यक्तित्व निमित्तसापेक्ष उपादान. की अनुगुञ्ज है। व्यक्तित्व के विकास और ह्रास में उपादान कारण के साथसाथ निमित्त कारण का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यक्तित्व के उत्थान और पतन में काल, स्वभाव, नियति, कर्म, पुरुषार्थ, क्षेत्र, मति, परिस्थिति आदि सबका योग रहता है। परिस्थिति बदलते ही व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन परिलक्षित होने लगता है। अस्तित्व में आलोकित उपादान की चमक व्यक्तित्व में निहित निमित्त की चमक से तिरोहित हो जाती है। उपादान निमित्त से पराभूत होता हुआ सा प्रतीत होता है। इस सत्य का साक्षात यौगलिक युग में किया जा सकता है। आदियुग का यौगलिक मानव कल्पवृक्षों के सहारे अपना जीवन यापन कर रहा था। जीवन की सीमित आवश्यकताएं थी। जिनकी सम्पूर्ति प्रकृति के द्वारा ही सहज रूप से हो रही थी। उस काल के व्यक्तियों में अकृत प्राकृतिक व्यवस्था थी। न सभ्यता, न संस्कृति, प्रकृति ही उनकी भव्य आकृति थी। न समाज, न राज्य, व्यक्ति अपनी ही मस्ती में अलमस्त था। आवेग एवं संवेग की सरिता उस युग के मानव के हृदय में स्वतः ही शान्त थी। जब संवेग का वलय उपशांत होता है तब व्यवस्था अव्यवहार्य बन जाती है। यौगलिक युग के मनुष्य स्वभाव से ही प्राकृतिक व्यवस्था का अनुपालन कर रहे थे। ऋषभायण के महाकवि उस युग की तुलना मार्क्स के राज्यविहीन समाज की अवधारणा से करते हैंनहीं राज्य है, ना समाज है, व्यक्तिवाद है एकाकार। राज्य-विहीन समाज मार्क्स की हुयी कल्पना ज्यों साकार ॥' तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 CRORE 1, 2000mmsssssssss 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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