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________________ अपेक्षा को लेकर की जाती है। जिस अपेक्षा में वस्तु में अस्तित्व होता है उसी अपेक्षा से वस्तु में नास्तित्व नहीं है। इसीलिये सप्तभंगी नय में उपर्युक्त आठ दोषों के लिये स्थान ही नहीं रहता है।25 द्रव्यार्थिक की अपेक्षा वस्तु नित्य, सामान्य, अवाच्य और सत् है तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनित्य, विशेष, वाच्य और असत् है। अतः नित्य अनित्यवाद, सामान्यविशेषवाद, वाच्य-अवाच्यत्व तथा सद्-असद्वाद इन चार वादों का स्याद्वाद में समावेश हो जाता है। प्रत्येक दर्शन नयवाद में गर्भित होता है। वस्तु के स्वरूप की पुष्टि के लिये न्याय-वैशेषिक केवल 'नैगम नय' को मानते हैं। अद्वैतवाद और सांख्य केवल संग्रहनय' को स्वीकार करते हैं। चार्वाक् व्यवहार नय' को, बौद्ध-ऋजु नय को तथा वैयाकरण केवल 'शब्द नय' को ही मानते हैं। ये सभी दर्शन एकान्तवादी हैं। जैन-दर्शन के अनुसार वस्तु अनन्त धर्मात्मक है और नीयते परिच्छिद्यते एकदेश विशिष्टोऽर्थः । आभिरिति नीतयो नयाः26 के अनुसार जिससे पदार्थों का एक अंश जाना जाता हो उसे नय कहते हैं। अतः अनन्तधर्मा वस्तु को समझाने के लिये जितने तरह के वचन होते हैं उतने ही नय सम्भव हैं। जैनदर्शन में सामान्य रूप से नैगम संग्रह, व्यवहार, ऋजु-सूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत से नय के सात भेद बताये हैं तथा पदार्थ ज्ञान के लिये नय दुर्नय तथा प्रमाण को आवश्यक बताया है। इस प्रकार जैन दर्शन का नयवाद व्यापक है तथा उपर्युक्त सभी एकान्तियों के नय का इसमें अन्तर्भाव है। ___ भावाभाव, द्वैताद्वैत, नित्यानित्य आदि एकान्तवादों में सुख-दुःख, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं होती है। अनेकान्त को स्वीकार करने पर ही इनकी स्थिति स्पष्ट हो जाती है। जहां एक ओर एकान्तवादी एक दूसरे के मतों में दोष सिद्ध कर परस्पर खण्डन करते हैं तो दूसरी ओर स्याद्वाद सभी मिथ्यादर्शन रूप एकान्तवादों का समन्वय करता है। आचार्य मल्लिषेण ने स्याद्वाद मंजरी में जीवों के अनन्त्यवाद को भी लिख दिया है। अन्त में ग्रन्थाकार का जयघोष करते हुए कहते हैं कि सम्पूर्ण एकान्तवादों का समन्वय करने वाले अनेकान्त से ही जगत का उद्धार सम्भव है।27 संसार का प्रत्येक कण अनन्त धर्मात्मक है। वस्तुतः विरोध वस्तु में नहीं है, विरोध तो हमारी दृष्टि में है। आवश्यकता है कि हमें अपनी दृष्टि को निर्मल और व्यापक बनाना चाहिए। अनेकान्त का आध्यात्मिक दृष्टि से चिन्तन कर वस्तु शब्द से आत्मा का अर्थ ग्रहण करना चाहिये। अनेकान्त दृष्टि से आत्मतत्व को समझकर अपनी आत्मा के उत्थान का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये। अनेकान्त और स्याद्वाद आत्मशान्ति के साथ विश्वशान्ति का प्रतिष्ठापक सिद्धान्त है। ऐतिहासिक विद्वान् और राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर का कथन है इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेकान्त का अनुसन्धान भारत की अहिंसा साधना का चरमोत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितना शीघ्र अपनायेगा, विश्व में शान्ति भी उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 29 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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