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2. स्यान्नास्ति जीव : किसी अपेक्षा से जीव नास्तिरूप ही है। इस भंग में पर्यायार्थिक नय की मुख्यता और द्रव्यार्थिक नय की गौणता है। जीव परसत्ता के अभाव की अपेक्षा को मुख्य करके नास्तिक रूप हैं। यदि पदार्थ में परसत्ता का अभाव नहीं माना जाय तो समस्त पदार्थ एक रूप ही हो जायेगा। कोई भी वस्तु सर्वथा भाव या अभाव रूप नहीं हो सकती, अतः भाव और अभाव को सापेक्ष ही मानना चाहिये।
3. स्यादस्ति च नास्ति च जीव : जीव कथंचिद् अस्ति और नास्ति स्वरूप है। इसमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों की प्रधानता है। जिस समय वक्ता के अस्ति
और नास्ति दोनों धर्मों का कथन करने की विवक्षा होती है उस समय इस भंग का व्यवहार होता है।
4. स्यादवक्तव्य जीव : जीव कथंचित् अवक्तव्य ही है। इस भंग में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों की अप्रधानता है। जिस नय की जहां विवक्षा हो वह नय वहां प्रधान तथा जिस नय की जहां विवक्षा नहीं होती वह नय वहां गौण होता है। प्रथम भंग में जीव के अस्तित्व की मुख्यता थी तथा द्वितीय भंग में नास्तित्व की मुख्यता है। अस्तित्व
और नास्तित्व दोनों धर्मों की मुख्यता से जीव का एक साथ कथन सम्भव नहीं है, क्योंकि एक शब्द से अनेक गुणों का निरूपण सम्भव नहीं। इसलिये अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मों की अपेक्षा से जीव कथंचित अवक्तव्य है।
5. स्यादस्ति च अवक्तव्यश्च जीव : जीव कथंचित् अस्ति रूप और अवक्तव्य रूप है। इस नय में द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता तथा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अप्रधानता है। जीवत्व और मनुष्यत्व की अपेक्षा से आत्मा अस्तिरूप है तथा द्रव्य सामान्य और पर्याय सामान्य की अपेक्षा वस्तु के भाव और अवस्तु के अभाव के एक साथ अभेद की अपेक्षा आत्मा अवक्तव्य है।
6. स्यान्नास्ति च अवक्तव्यश्च जीव : जीव कथंचित् नास्ति और अवक्तव्य रूप है। इस भंग में पर्यायार्थिक नय की प्रधानता और द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों की अप्रधानता है। जीव पर्याय की अपेक्षा से नास्ति रूप है तथा अस्तित्व और नास्तित्व, दोनों धर्मों की एक साथ अभेद विवक्षा से अवक्तव्य स्वरूप है।
7. स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यश्च जीव : जीव कथंचिद् अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य रूप है। जीव द्रव्य की अपेक्षा अस्ति, पर्याय की अपेक्षा नास्ति और द्रव्य पर्याय दोनों की एक साथ अपेक्षा से अवक्तव्य रूप है।
इस प्रकार सप्तभंगी के प्ररूपण से वस्तु के अनेकान्तात्मक होने का ज्ञान सुखपूर्वक होता है। अतः आचार्य मल्लिषेण कहते हैं- अनेकान्तात्मकत्वं च सप्तभंगी प्ररूपेण सुखोन्नेयं स्यादिति सापि निरूपिता 124
इस सप्तभंगीवाद में कुछ विपक्षियों ने विरोध, वैयाधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव नामक आठ दोष बताये हैं। आचार्य मल्लिषेण इनका समाधान करते हुए कहते हैं कि स्याद्वादियों के मत में स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा वस्तु में अस्तित्व है और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से नास्तित्व है। वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व परस्पर विरुद्ध धर्मों की कल्पना किसी
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 110
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