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________________ जैन-दर्शन अनेकान्त का आध्यात्मिक पक्ष स्याद्वादमंजरी के परिप्रेक्ष्य में ---डॉ. संगीता मेहता वैचारिक विकास का चरमबिन्दु, अज्ञान तिमिर के लिये ज्ञानरूपी सूर्य, निराश मानव जाति के लिये संजीवनी, भारतीय संस्कृति की गरिमा का प्रतीक और विश्व शान्ति का मूल मंत्र प्रकारान्तर से ये सभी अनेकान्त के पयार्य हैं। 'अनेके अन्ताः यस्यासौ अनेकान्तः' जिसमें अनेक अन्त अर्थात् धर्म विद्यमान हो वह अनेकान्त है। दीपक से काला अंजन, जलमय मेघ से बिजली रूप अग्नि तथा जल से परिपूर्ण समुद्र में प्रकट वाड़वाग्नि वस्तु में विद्यमान विरोधी धर्म है। वस्तु प्रतिसमय अपने पूर्व रूप को छोड़कर नवीन रूप धारण करती है। एक ही वस्तु में सत्-असत् दोनों रूप विद्यमान होते हैं। प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा नास्ति रूप है। अतः अनन्त धर्मात्मक वस्तु का स्वरूप ही अनेकान्त है और वस्तु के अनेकान्त स्वरूप को समझाने वाली सापेक्ष कथन पद्धति स्याद्वाद है। स्याद्वाद स्यात् और वाद इन दो पदों के योग से बना है। स्यात् शब्द एक ऐसा सजग प्रहरी है जो शब्द की मर्यादा को सन्तुलित रखता है। सत्य का दर्शन स्याद्वाद की पृष्ठभूमि पर ही हो सकता है। अनेकान्त और स्याद्वाद जैन दर्शन की आधारशिला है। भारतीय दर्शन के समन्वय की संयोजक कड़ी है। अनेकान्त वाद के दो रूप विकसित दृष्टिगत होते हैंनयवाद और सप्तभंगी। विचार की विभिन्न पद्धतियों का समन्वय नयवाद करता है और सप्तभंगी किसी वस्तु के विषय में प्रचलित विरोधी कथनों का समन्वय करता है। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 20000 - 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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