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________________ (ण) सूत्र 429 उदाहरण पद्य-क्रमांक 1 विरहाणल-जाल-करालिअउ पहिउ पन्थि जं दिट्ठउ । तं मेलवि सव्वहिं पन्थिअहिं सो जि किअउ अग्गिट्टङ ॥ छाया विरहानलज्वालाकरालितः पथिकः पथि यद् दृष्टः । तद् मिलित्वा सर्वैः पथिकैः स एव कृतः अग्निष्ठः। भाषान्तर "विरहानल की ज्वाला से घिरा हुआ पथिक जब मिला तब अन्य सभी पथिकों ने मिलकर उसे अग्नि को सुपुर्द कर दिया (क्योंकि वह मर चुका था)।" ___यहाँ ‘अग्गिट्ठ' < 'अग्निष्ठ' का भाषान्तर ‘अग्नि को सुपुर्द किया गया है। पाइअ-सद्द-महण्णवो में भी इसी प्रयोग के आधार पर इस शब्द का यही अर्थ किया गया है। परन्तु यह ‘अग्गिट्ठाण' 'अग्निस्थान' का संकुचित रूप हो सकता है (मिलाइए, हिन्दी 'अंगीठी')। पालि में 'अग्निस्थान' के लिए 'अग्गिट्ठाण' और 'अग्गिट्ठ' दोनों रूप मिलते हैं (मिलाइए, 'अग्गिटुं परिमज्जंतं इसिसिंग उपागमी ति' (जातक V.155)। ‘अग्गिट्ठउं < अग्निस्थानकं' के इस अर्थ के साथ पूरे पद्य का अनुवाद इस तरह किया जा सकता है “जब विरहाग्नि की ज्वाला से दहकता हुआ पथिक रास्ते पर मिला तब अन्य सबों ने मिलकर उसे अंगीठी बना लिया (अर्थात् शीत दूर करने के लिए चारों ओर से उसे तापने लगे)।" अतिशयोक्ति को हास्य की सीमा तक ले जाना अपभ्रंश में कोई नई बात नहीं है। टिप्पणियाँ 1. स्वयम्भूकृत पउमचरिउ में अनेक बार णीसावण्ण, व्वण्णु, शब्द का प्रयोग मिलता है (देखें, 4.5 (3-5); 8.4.9 घत्ता; 2.7.9;41.12.2;57.12.2). टिप्पण में अर्थ कहीं 'द्वितीय प्रभुरहित' और कहीं 'समस्त' किया गया है। डॉ. भयाणी का सुझाव शब्द को 'निःसामान्यम' से निष्पन्न करने का है। इन सभी प्रसंगों में भी ऊपर प्रस्तावित 'निःसपत्नम्/निःसापत्न्यम्' मजे से खपता है। 2. मिलाइए-‘यावदन्यैव सा कापि नारीरूपैव चन्द्रिका' बृहत्कथाश्लोकसंग्रह 13.43. 3. जंत+स्वराणां स्वराः-जंति, निर्विभक्तिक षष्ठी, हेमचन्द्र. 4.345. 4. मिलाइए, 'जीवहु जंत ण कुडि गइय' पाहुडदोहा-52 जहाँ 'जंत' षष्ठ्यंत 'जीवहु' का विशेषण है। 5. मिलाइए, केलीअ वि रूसे उंण तीरए तम्मि चक्क-विणअम्मि। __ जाइअएहिं. व माए इमेहिं अवसेहिं अंगेहिं ।। गाथासप्तशती 2.95 (बसक)। 6. मिलाइए :-पयावइणो चेव पगरिसो एस, जेण अविज्जमाणपडिच्छंदा एसा विणिम्मिया । पुहवीचंदचरिउ, पृ. 5 पं. 5. 7. पुरोहसुया । तप्पुरवडुरागोढा-उपदेशपद 713 8. ब > भ के लिए द्रष्टव्य हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण 2.137; बृहस्पति भयस्सई, भयफ्फई; और बिम्बसार > भिंभसार, भंभसार। 9. मिलाइए : -हिन्दी ‘सुरकना'; 10. मिलाइए :- हिन्दी ‘घुट-घुट कर पीना' । 22 S तुलसी प्रज्ञा अंक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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