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________________ भाषान्तर "हरि को प्राङ्गण में नचाया गया; लोग विस्मय-विमुग्ध हुए, अब राधा के पयोधरों को कुछ भी हो सकता है।" भाषान्तर में पद्य की दूसरी पंक्ति अस्पष्ट रह जाती है। पाइअ-सद्द-महण्णवो में 'भाव' का एक अर्थ ‘पसन्द होना' 'उचित मालूम होना' किया गया है और उदाहरण प्रकृत प्रयोग का भी दिया गया है। तदनुसार पद्य का भाषान्तर निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है हरि को (गोपियों के द्वारा) प्राङ्गण में नचाया गया; लोग विस्मय-विमुग्ध हुए; अब राधा के पयोधरों को जो रुचे सो हो (व्यंग्य यह हो सकता है कि उन्हें हरि का आलिंगन प्राप्त हो)।" (ठ) सूत्र 420 उदाहरण पद्य-क्रमाङ्क 3 साव-सलोनी गोरडी नवखी क वि विस-गण्ठि। भडु पच्चलिओ सो मरइ जासु न लग्गइ कण्ठि। छाया सर्वसलावण्या गौरी नवा कापि विषग्रन्थिः। भटः प्रत्युत स म्रियते यस्य न लगति कण्ठे। भाषान्तर “यह सर्वाङ्ग-सुन्दर गोरी मानो ताजा विषग्रंथि (बचनाग) है; परन्तु यदि यह उसके गले लगी नहीं तो वह बाँका मर जायगा।" यहाँ 'साव-सलोनी' का तत्सम ‘सर्वसलावण्या' किया गया है। परन्तु इसे 'श्यामा-सलावण्या' से भी निष्पन्न किया जा सकता है, 'म' 'व' व्याकरण-सम्मत है, (देखें हेमचन्द्र-प्राकृतव्याकरण 4.397)। 'साम-सलोना' या 'श्याम-सलोना' कृष्ण के लिए बहुधा प्रयुक्त विशेषण है-'हे श्याम-सलोने तुझे मीरा पुकारती।' कवि ने अपनी नायिका के लिए इसके स्त्रीलिंग रूप का प्रयोग किया है। फिर 'श्यामा' की विशिष्टता विश्रुत है-'दर्शनीयतमा श्यामा नारीनामिति दर्शनम्' (बृहत्कथा श्लोकसंग्रह 28.15); और, 'शीतकाले भवेदुष्णा, ग्रीष्मे च सुखशीतला। सर्वावयवशोभाढ्या, सा श्यामा प्रकीर्तिता॥' (बालप्रबोधिनी पृ. 630) इस परिप्रेक्ष्य में यहाँ 'साव' का 'सामा' 'श्यामा' करना अनुचित नहीं है। गोरडी' शब्दानुसार 'गौर वर्ण की स्त्री' है। पर इसका अर्थ व्यापक हो गया है और किसी सुन्दर स्त्री को इसके द्वारा अभिहित किया जा सकता है। 'विसगण्ठि' 'बचनाग' की ग्रन्थि नहीं है; बल्कि, यह कोई भी 'नवखी', अनोखी विषग्रन्थि है। इसका अनोखापन यह है कि अन्य विषग्रन्थि गले में लगने पर (खाये जाने पर) मारती है, यह उलटे गले में नहीं लगने पर (प्रेमिका के रूप में नहीं मिलने पर) मार डालती है। 'भडु', 'भटः' नहीं है; इसे मनचले युवक के लिए व्यंग्य से प्रयुक्त 'बटु' शब्द का अपभ्रंश रूप मानना चाहिए, बटु > बडु' > भडु । इन सुझावों के आलोक में पद्य का अनुवाद निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है 20 तुलसी प्रज्ञा अंक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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