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छाया
यावत् विसमा कार्यगतिः जीवानां मध्ये आयाति ।
तावदास्तामितरः जनः सुजनोऽप्यन्तरं ददाति ।। भाषान्तर
“जब बुरे दिन आते हैं तो सामान्य जनों की कौन कहे, सुजन भी प्रतिकूल हो जाते हैं।"
यहाँ सुअणु' को 'स्वजन' करना अधिक प्रसंगाकूल लगता है। 'सुमिण/सुविण, सुसा' आदि शब्दों में 'स्व' का 'सु' हुआ है। अतः प्रकृत 'सुअणु' का तत्सम रूप स्वजन' माना जा सकता है।; प्रयोग भी मिलते हैं, यथाः- ‘अच्छंतु निरन्तरनेहगब्भसब्भावसुंदरा सुयणा' आख्यानकर्माणकोश 91-200; पुरानी हिन्दी (अवधी) में भी ‘स्वजन' का 'सुजन' हुआ है। मिलाइये, और निबाहेहु भायप भाई, करि पितु-मातु सुजन सेवकाई' (रामचरितमानस 2.153.3)। यह परिवर्तन करने पर अर्थ होगा
___ "जब लोगों के (शब्दानुसार जीवों के) बुरे दिन आते हैं, तब और तो और, अपने भी पराये (शब्दानुसार दूरस्थ) हो जाते हैं।" (ञ) सूत्र 418 उदाहरण पद्य-क्रमांङ्क 5
लोणु विलिज्जइ पाणिएण अरि खल मेह म गज्जु ।
वालिउ गलइ सु झुम्पडा गोरी तिम्मइ अज्जु । छाया
लवणं विलीयते पानीयेन अरे खल मेघ मा गर्ज।
ज्वालितं गलति तत्कुटीरकं गौरी तिम्यति अद्य ॥ भाषान्तर
“लवण (लावण्य) पानी पड़ने से गल जाता है; अरे दुष्ट घन गरजो मत; झोंपड़ी जली हुई है, इसका छप्पर चूएगा और भीतर बैठी वह लावण्यवती, आज भींग सकती है।"
यहाँ बादल के गरजने से विरहाग्नि का प्रदीप्त होना, उससे झोंपड़ी का जलना और फिर चूना व्यंग्य है जिसे स्फुट करते हुए पद्य निम्नलिखित रूप से अनूदित किया जा सकता है
“पानी पड़ने से लवण का विलय हो जाता है; अरे खल मेघ (अब और) गरजो मत। (वर्षाकाल के आगमन से प्रदीप्त विरहाग्नि में) (अंशतः) जला हुआ छप्पर चूता है, गोरी आज भींग रही है (उसका लावण्य विलीन हो रहा है)।" (ट) सूत्र 420 उदाहरण पद्य-क्रमाङ्क 2
हरि नच्चाविउ पङ्गणइ, विम्हइ पाडिउ लोउ।
एम्वहिं राह-पओहरह, जं भावइ तं होउ। छाया
हरिः नर्तितः प्राङ्गणे विस्मये पातितः लोकः। इदानीं राधापयोधरयोः यत् (प्रति-) भाति तद् भवतु ॥
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000
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