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अनेकान्त सामुदायिक चेतना का शांति केन्द्र है। जैनधर्म में अनेकान्त का सिद्धान्त बहुपरिणामी सिद्धान्त है। यह शास्त्रों तक ही सीमित नहीं, जीवन का मुख्य हिस्सा बन गया है। बिना अनेकान्त न सुख, न शांति, न सन्तुलन और न सामञ्जस्य। जहां भी द्वन्द्व खड़ा होता है, यह दर्शन विरोधी युगल का सापेक्षता के साथ मूल्यांकन कर व्यक्ति को प्रश्नों के घेरे से बाहर निकाल लाता है । अनेकान्त मनुष्य में चिन्तन का अनाग्रह, वैचारिक सामञ्जस्य, प्रतिकूलताओं को सहने की क्षमता, मानसिक सन्तुलन, सापेक्ष चिन्तन जैसी गुणात्मकता उसकी निजी पहचान बनी है।
आज अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त इस अकारत्रयी को सम्यक् समझ लिया जाए तो वैयक्तिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक, नैतिक, धार्मिक सभी समस्याएं विराम पा सकती हैं। मगर अफसोस यही है कि हम सिद्धान्तों की खिड़कियों और दरवाजों को बन्द कर यूं खड़े हैं मानो मालिक से भी ज्यादा दायित्व हम पहरेदारों का है। कहीं हवा का कोई झोंका भीतर प्रवेश न कर जाए।
यह अवसर हमें चिन्तन की प्रतिबद्धताओं, स्वीकृत अवधारणाओं से मुक्त कर सका तो खुले आकाश के नीचे खुली धरती पर खुले दिल-दिमाग से अवश्य कई ठोस निर्णय लिए जा सकेंगे।
सार्वभौम सिद्धान्तों के समवाय जैनधर्म को आज हमने विभक्तियों में बांट दिया। दिगम्बरत्व और श्वेताम्बरत्व के नाम पर अनेक मान्यताओं, पूजा-उपासनाओं, विधि-विधानों के वैविध्य को अपनी-अपनी पहचान दे दी। एक ही आकाश के नीचे हम खेमों में बंट गए। यही वजह है कि धर्म के नाम पर सम्प्रदाय खड़ा हो गया। धर्म के नाम पर धन-वैभव का प्रदर्शन शुरू हो गया। धर्म के नाम पर छुआछूत, जातिवाद की प्रतिबद्धता, उपासनाओं की आग्रही पकड़ सामने आने लगी। धर्म के नाम पर सत्ता, पद-प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि ने सिर उठा लिया। इसी धर्म की ओट में आज वैचारिक वैमनस्य फैल रहा है। साधर्मिकता खतरे में पड़ी हुई है। अपनी-अपनी मान्यताओं की सुरक्षा में हिंसा, विवाद, वैमनस्य को बढ़ावा मिल रहा है। ऐसी स्थिति में महावीर का 26सौवाँ जन्म कल्याणक दिवस मनाने का साहस तभी किया जा सकता है जब हमारा पुनर्जन्म हो। हम द्विजन्मा होकर धर्म और दर्शन को सही मायने में समझ पाएं।
एक जन्म मां के गर्भ से होता है जो सिर्फ मृत्यु पर्यन्त प्रभावी रहता है। इसमें मांबाप से, परिवार, परिवेश और परिस्थिति से, संस्कारों और परम्पराओं से पहचान मिलती है। मगर दूसरा जन्म होता है तब इन्हीं सीमाओं के बीच अपनी स्वतंत्र पहचान लिए आदमी आता है जिसका व्यवहार, आचार, संस्कार सबकुछ बदला हुआ होता है। ब्राह्मण को द्विजन्मा कहते हैं । जब जनेऊ संस्कार होता है तब माना जाता है कि यह उसका दूसरा जन्म है। मुनि को द्विजन्मा कहा गया । संन्यास लेते समय गुरु के हाथों उसका दूसरा जन्म होता है। सम्बन्धों का संसार पीछे छूट जाता है। एक नए संसार की शुरूआत होती है। पक्षी को भी द्विजन्मा मानते हैं। क्या मनुष्य द्विजन्मा मनुष्य नहीं हो सकता ?
- तुलसी प्रज्ञा अंक 110
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