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उपनिषद् और पुरुषार्थ – पुरुषार्थ की बेड़ी कर्म से जुड़ी हुई रहती है और कर्म का स्वरूप कर्त्ता की प्रवृत्ति पर निर्भर है। उपनिषद् काल में पुरुषार्थ पर नैतिकता का प्रभाव काफी रहा। जो वैसा आचरण करता है वह वैसा ही हो जाता है । बृहदारण्यकोपनिषद् में उल्लिखित है- यथाकारी यथाचारी तथा भवति - साधुकारी साधुर्भवति, पापकारी पापो भवति, पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन । जो कार्य विद्या और श्रद्धा के समीप बैठकर किया जाए वह अधिक फलप्रद होता है
यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा तदैव वीर्यवत्तरं भवति ।"
इस प्रकार उपनिषद् युग में विद्या और श्रद्धा से युक्त होकर अथवा उनके समीप बैठकर स्थिरचित्त में कर्मों का सम्पादन पुरुषार्थ कहा गया । वैदिक आर्यों ने जिस भौतिक समृद्धि पर बल दिया था, यहां आकर उसका स्थान आत्म विद्या ने ले लिया । नचिकेतायमराज, याज्ञवल्क्य मैत्रेयी 21 आदि अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिससे स्पष्ट होता है कि आत्मविद्या को ही उपनिषद् काल में परम पुरुषार्थ कहा गया । गौणतया सांसारिक अभ्युदय की कामना भी की जाती रही है ।
उपनिषद्-काल में ही चतुर्विध पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की मान्यता प्राप्त हो चुकी थी । मनुस्मृतिकार ने एक स्थल पर तीन " एवं अन्यत्र चार 23 पुरुषार्थों की स्वीकृति प्रदान की । पौराणिक युग में चारों पुरुषार्थों को समवेत रूप में अंगीकार किया गया। विष्णु पुराण एवं अग्नि-पुराण में पुरुष के इष्ट प्रयोजन को पुरुषार्थ कहकर इसकी संख्या चार-धर्म, अर्थ काम और मोक्ष बतायी गयी - धर्मार्थकाममोक्षाश्च पुरुषार्था उदाहृता: 124 दार्शनिक आम्नाय और पुरुषार्थ - सभी दार्शनिक प्रस्थानों का प्रारम्भ दुःख विनिवृत्ति रूप प्रयोजन से ही होती है, इसलिए सभी ने शब्दान्तर मात्र से दुःख विमोचन एवं अनन्त सुख की लब्धि को पुरुष का परम प्रयोजन या पुरुषार्थ माना है। सांख्याचार्य त्रिविध आध्यात्मिक (शारीरिक-मानसिक), आधिभौतिक एव आधिदैविक दुःखों से पूर्ण (ऐकान्तिक) निर्वृत्ति को परम पुरुषार्थ मानते हैं । सांख्यसूत्र के अनुसार
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'अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थ : ” अर्थात् त्रिविध दुःखों का आत्यन्तिक विनाश ही परम पुरुषार्थ है। रसेश्वर दर्शन में योग के अभ्यास द्वारा परम तत्व का साक्षात्कार कर लेना ही पुरुषार्थ माना गया है
योगाभ्यास वशात्परत्वे दृष्टे पुरुषार्थ प्राप्तिर्भवति । मीमांसा के अनुसार जिस कर्म से मनुष्य को सुख प्राप्त होता है और जिसे करने की इच्छा स्वयं ही होती है, वह पुरुषार्थ है । आचार्य जैमिनी के शब्दों में- यस्मिन् प्रीतिः पुरुषस्य तस्य लिप्सा अर्थ लक्षण विभक्तित्वात् ।7 अद्वैतवेदान्त की दृष्टि में जिससे सभी दुःखों का शमन हो जाए तथा परमानन्द का ही एक
NIV तुलसी प्रज्ञा अंक 109
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