________________
पुरुषार्थ चतुष्टय
भारतीय वाङ्मय में पुरुषार्थ
डॉ. हरिशंकर पाण्डेय
भारतीय वाङ्मय में पुरुषार्थ एक महत्वपूर्ण शब्द है। सभी प्रस्थानों ने देश, काल
और मान्यता के अनुरूप इस शब्द का विवेचन किया है । शब्दकल्पद्रुम' के अनुसार पुरुषस्य अर्थ पुरुषार्थ, पुरुषस्य प्रयोजनम् पुरुषार्थ अर्थात् पुरुष का अर्थ या पर प्रयोजन पुरुषार्थ है। वाचस्पत्यम् में भी पुरुष के इष्ट प्रयोजन को पुरुषार्थ कहा गया है। पुरुष के उद्योग का विषय । पुरुष का लक्ष्य, पुरषकार, पौरुष, पुरुषपराक्रम, पुरुषत्व, पुरुष, व्यक्ति, सामर्थ्य, बल पुरुषस्थान, पुरुषक्रिया आदि पुरुषार्थ शब्द के अनेक अर्थ उपलब्ध होते हैं। परिभाषा : पुरुष के कर्तव्य विशेष या प्रयोजन विशेष को पुरुषार्थ कहते हैं । देश, काल एवं अवस्थानुरूप कर्तव्य विशेष का आचरण पुरुषार्थ शब्दाभिधेय है। अधिष्ठान (आधार) कर्ता, करण, चेष्टा और नियति (ईश्वर, भाग्य आदि) पंच घटक तत्वों के योग से हम कार्य करते हैं । मन तथा इन्द्रियों की एकाग्रता पूर्वक उपर्युक्त पांच तत्वों के योग से देश, काल, पात्रानुसारपूर्वक अभ्युदय एवं श्रेयस्-सिद्धि को ध्यान में रखकर विवेकपूर्वक जो कार्य किया जाये वह पुरुषार्थ है। मानवीय जीवन में बाह्य-निर्माण और आन्तरिक विकास दोनों काम्य होते हैं। दोनों को एक दूसरे का पूरक बनाते हुए सम्यग् रीति से आगे बढ़ते जाना पुरुषार्थ शब्द वाच्य है। जब कोई व्यक्ति श्रेष्ठ अभीष्ट की सिद्धि के लिए प्रयोजन की महनीयता एवं साधना की समीचीनता को ध्यान में रखकर ज्ञानपूर्वक अग्रसर होता है, वह आगे बढ़ने की
क्रिया ही पुरुषार्थ है, जो पूर्णतया नैतिकता एवं चारित्रिक सबलता पर आधारित है। 70 AMITITIONINNIIIIIIIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 109
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org