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प्राकृतिक व अन्य संसाधनों पर नियंत्रण की अपेक्षा है जिनके आधार पर संस्कृति का निर्माण हुआ है। वे लोग जो जंगलों में रहते हैं, जिन्होंने अपने जीवन और शिकार के लिए जंगल के उपयोग पर आधारित संस्कृति का विकास किया है, उन्हें अपनी कला, नृत्य एवं रीतिरिवाजों को बनाये रखने का अधिकार है। वे वन और वनीय संसाधनों के नियंत्रण के अधिकारी भी सदैव बने रहने चाहिए अन्यथा उनकी संस्कृति नष्ट हो जाएगी। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि धारा 27 संस्कृति के केवल अभौतिक पक्ष की ही सुरक्षा करती है । वंश और जाति संहार की घटनाएं भी व्यापक हैं। वंश संहार के परिणामस्वरूप एक नृवंश को उनकी अपनी भाषा बोलने से या उनके बच्चों को उस भाषा में शिक्षा ग्रहण करने से रोका जाता है। उन्हें लिखने के अधिकार तथा अपनी संस्कृति को बनाए रखने हेतु आवश्यक भौतिक स्थितियों से वंचित किया जाता है।
जाति संहार तो पराकाष्ठा है जिसमें एक देश, एक वंश, एक जाति या एक धार्मिक समुदाय का पूर्णत: या आंशिक संहार के लिए कार्य किया जाता है। जाति संहार को यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अन्तर्गत अपराध माना गया है पर अभी भी इस पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित नहीं हो पाया है।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि मानवाधिकार कानून संघर्षों के निराकरण के लिए महत्वपूर्ण आधार प्रस्तुत करता है, विशेषकर सामाजिक और राजनैतिक संघर्षों के निराकरण के लिए। लेकिन मानवाधिकार की व्यवस्थाएं जातीय संघर्षों के लिए अभी भी कम सहायक हो पा रही हैं।
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सह-आचार्य एवं अध्यक्ष अहिंसा एवं शान्ति अध्ययन विभाग जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं
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तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - सितम्बर, 2000 AM
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