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और ३. युद्ध । समणसुत्तं के अंत में जोड़े गए पारिभाषिक शब्द कोश में भी द्वन्द्व को इष्टअनिष्ट, सुख-दु:ख, जन्म-मरण, संयोग-वियोग आदि परस्पर विरोधी युगल-भाव द्वारा परिभाषित किया गया है।
उपर्युक्त अर्थों के विश्लेषण से द्वन्द्व के दो रूप स्पष्ट होते हैं। एक तो द्वन्द्व, युद्ध या 'द्वन्द्व-युद्ध' के अर्थ में प्रयुक्त होता है और दूसरे वह परस्पर विरोधी युगल भावों को अभिव्यक्ति देता है।
दो विरोधी व्यक्तियों या दलों के बीच पूर्वनिश्चित या जाने माने नियमों के अनुसार प्रचलित शस्त्रों द्वारा युद्ध को द्वन्द्व या द्वन्द्व-युद्ध कहते हैं। ऐसे युद्ध प्राचीन काल में बहुत से देशों में प्रचलित थे। भारत में वैदिक काल में भी द्वन्द्व युद्धों का प्रचलन मिलता है। उत्तर वैदिक काल में इनके संबंध में नए नियम बनाकर पूर्व प्रचलित प्रथा में सुधार किया गया। रामायण और महाभारत में द्वन्द्व-युद्धों के अनेक उल्लेख हैं। राम-रावण, बालि-सुग्रीव तथा दुर्योधन-भीम के युद्ध इसके उदाहरण हैं। जो बातें अन्य प्रकार से नहीं सुलझाई जा सकती थीं उनके निर्णय के लिए नीति अपनाई जाती थी। इसके मूल में यह विश्वास था कि इन युद्धों में ईश्वर उसी को जिताता है जिसके पक्ष में न्याय होता है।
द्वन्द्व-युद्धों का युग अब समाप्त हो चुका है। अब दो पक्षों (व्यक्ति नहीं) के बीच सशस्त्र या शीत-युद्ध होते/चलते हैं । युद्ध के अतिरिक्त 'द्वन्द्व' परस्पर विरोधी युगल भावों को अभिव्यक्ति देता है। 'द्वन्द्व' के इस अर्थ में कई बातें निहित हैं
१. द्वन्द्व बिना युग्म के संभव नहीं है। शीत-उष्ण, सुख-दु:ख, इष्ट-अनिष्ट, संयोग-वियोग, ऐसे ही युगल भाव हैं जो द्वन्द्व के लिए अनिवार्य हैं। ये युग्म विभिन्न क्षेत्रों से उठाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए 'शीत-उष्ण' भौतिक परिवेश संबंधी युग्म है जबकि संयोग-वियोग का क्षेत्र सामाजिक है। इष्ट-अनिष्ट, सुख-दु:ख आदि व्यक्ति की मनोदशाओं से संबंधित हैं। जैनदर्शन में मनोवैज्ञानिक या आंतरवैयक्तिक युग्मों का विशेषकर उल्लेख हुआ है। उदाहरण के लिए एक गाथा लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, और मान-अपमान के प्रति समानभाव विकसित करने के लिए कहती हैं।
२. युग्म में विरोधी-भाव होना आवश्यक है । जिस युग्म में विरोधी भाव नहीं होता, वह द्वन्द्व की स्थिति का निर्माण नहीं कर सकता। ऐसे तमाम युग्म गिनाए जा सकते हैं जो एक-दूसरे के पूरक होते हैं, विरोधी नहीं। ऐसे 'युग्म' द्वन्द्व को जन्म नहीं देते। द्वन्द्व के लिए युग्म का एक दूसरे का पूरक होना अनावश्यक है। उनका परस्पर विरोध में होना जरूरी है। सुख और शांति का युग्म एक दूसरे का विरोधी नहीं है, अतः इससे द्वन्द्व असंभव है। जैन
INIONLITTLINI तुलसी प्रज्ञा अंक 109
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