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'दादू इस संसार में, ये द्वै रतन अमोल। इन सांई अरू संतजन, इनका मोल न तोल ॥ दादू चन्दन कदि का अपना प्रेम प्रकाश । दह दिसि परगट व्है रह्या सीतल गन्ध सुवास ॥ दादू पारस कदि का मुझ थी कंचन होइ । पारस परगट व्है रह्या साच कहै सब कोई ॥ जे जन हरि के रंगि रंगे, सो रंग कदे न जाई। सदा सुरंगे संत जन, रंग मैं रहे समाई ॥ "
सन्त परम्परा इस प्रकार से चुपचाप अपना काम करती जाती है । निर्मला देशपांडे, विनोवा की शिष्या ने जलियावाला बाग तक दिल्ली से पद यात्रा की। जनमत बनाया। अन्त में सैनिक कार्यवाही की गयी ।
दरिया साहब ने पूछा - ' है को सत राग अनुरागी । जाकी सुरत साह बसे लागी । ' राजस्थान की दयाबाई ने कहा - 'साध साध सब कोउ कहै, दुरलभ साधू सेव' संत सहुजो बाई ने कहा
'साध संगत में चाँदना सकल अँधेर और। सहजो दुर्लभ पाइये, सतसंगत में ठौर ॥
जो आवे सतसंग में, जाति बरन कुल खोय । सहजो मैल कुचैल जल, मिलै सु गंगा होय ॥' जैसे पंजाब में वैसे महाराष्ट्र में सन्त ज्ञानेश्वर ने कहा कि 'साधक भूत-दया के कारण कर्मयोग में प्रवृत्त होता है । स्वामी रामदास ने कहा कि 'साधना स्वेच्छा से स्वीकृत आत्मानुशासन है। उन्होंने दास बोध में सन्तों के पूरे लक्षण दिये हैं। कुछ ये हैंसन्त और भागवत में भेद नहीं ।
सन्त एक भी क्षण व्यर्थ नहीं खोता । हमेशा कुछ-न-कुछ काम करता रहता है । सन्त वह है जिसमें कोई इच्छा न हो, जिसमें क्रोध न हो, जिसकी इच्छाएं आत्मा केन्द्रीभूत हो गयी हों और जिसका खजाना 'नाम' हो ।
सन्त कपड़ों से भिखारी - सा लगता है । उसकी शक्ति उसके मौन कामों में है । सन्त कम कहता और कम कहकर भी सबके दिलों को खींच लेता है । सन्त सबके हृदयों को जानता है और उन्हें प्रकाशमय बनाने के विविध तरीके भी जाता है।
सन्त अपने रहस्य अनुभव के बल पर सब दार्शनिक विचार धाराओं को हमवार कर देता है और लोगों को मजबूर कर देता है कि वे लकीर के फकीर न रहे।
सन्त तुकाराम ने साधु की व्याख्या की कि जो उत्पीड़ित, शोषित, दलित, वंचित, मुंचित है उन्हें जो अपनाते हैं वही साधु हैं। वही देवता वास करते हैं ।
एक और मराठी कवि अमृत ने लिखा
'संत-सभा में आत्म-सुवाचा सुन्दर उगवे मोड़। '
अर्थ—‘संत समागम में आत्मसुख का बीज छिपा है। वहीं अंकुरित होता है।
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