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________________ 22 समाज-संस्कृति सन्त परम्परा की उपयोगिता सामाजिक सन्दर्भ में डॉ. प्रभाकर माचवे आज भारत में भविष्य की आशंकाओं और असुरक्षिता के भय से घिरे सामान्य • नागरिक को सहसा बाबा, स्वामी, महर्षि, तांत्रिक, पराशक्तिज्ञाता, स्वयंभू, भगवान और चमत्कारी, सन्तों की शरण में जाने का रोग सा फैला है। बड़े बड़े राजनेताओं से लगाकर अन्धविश्वास और सहज श्रद्धा में हजारों वर्षों से आकंठ डूबे भोलेभाले गरीब लोगों तक यह रोग फैला है। ऐसे समय में ऐसा प्रश्न पूछा जाना स्वाभाविक है कि सामाजिक संदर्भ में सन्त परम्परा की क्या उपयोगिता है ? समाज में तो सब ओर अधर्म दिखाई दे रहा है और ऐसे ही लोग जो कर्म से तो सब प्रकार के भोगों में लिप्त हैं, वाणी से जब उससे उलटे त्याग का उपदेश औरों को देते हैं, तो उन पर से विश्वास उठ जाना स्वाभाविक है। अब इस बात को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें। भारत में वैदिक, बौद्ध भिक्षु और जैन श्रमण काल से ही सर्वसंग परित्यागी, नि:श्रेयस् सेवी, निवृत्तिपरक व्यक्ति को समाज में ऊंचा स्थान दिया गया है। ऋषि और मुनि, तपस्वी और सिद्ध धर्मों की पुराण - कथाओं में आदरित हैं, क्योंकि इन्द्रियशक्ति की एक सीमा है, अर्थ और काम मनुष्य का अन्तिम ध्येय नहीं हो सकता, यह बात हमारे पूर्वजों ने पहचानी थी । ऐहिक जीवन केवल एक सोपान है दैवी जीवन का। शरीर से मन और मन से आत्मा की ओर निरन्तर विकास और पुरस्सरण ही श्रेष्ठ माना गया । NV तुलसी प्रज्ञा अंक 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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