SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिगम्बर जैन परम्परा में संघ, गण, गच्छ, अन्वय आदि की परम्पराएँ भगवान् महावीर का संघ, जो उनके बाद निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ के रूप में प्रसिद्ध था, वही भद्रबाहु श्रुतकेवली के समय उत्तर भारत में बारह वर्षीय दुर्भिक्ष के कारण दक्षिण भारत गया था और यह निर्गन्थ संघ ही बाद में 'मूलसंघ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ और दूसरा श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ के नाम से विख्यात हुआ।' श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र स्थविरावली में इस परम्परा के विविध भेदरूप गण तथा शाखाओं के नाम उल्लिखित हैं। विविध भेदरूप गण, कुल, शाखाएं आदि चाहे दिगम्बर परम्परा की हों अथवा श्वेताम्बर परम्परा की, इन सब अन्तर्भेदों का कारण आचार-विचार भेद रहा है। यहाँ दिगम्बर परम्परा के संघ, गण, गच्छों आदि की परम्पराओं का विवेचन प्रस्तुत है - इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार ग्रन्थ में लिखा है कि वीर नि. सं. 565 वर्ष बाद पुण्डवर्धनपुरवासी आचार्य अर्हद्बली प्रत्येक पांच वर्षों के बाद में सौ यौजन की सीमा में बसने वाले मुनियों को युग प्रतिक्रमण के लिए बुलाते थे। एक समय उन्होंने ऐसे प्रतिक्रमण के अवसर पर समागत मुनियों से पूछा कि क्या सभी आ गये? तो मुनियों ने उत्तर दिया-हाँ, हम अपने संघ के साथ आ गये हैं। इस उत्तर को सुनकर उन्हें लगा कि जैनधर्म अब गण-- पक्षपात के साथ ही रह सकेगा। अत: उन्होंने नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पंचस्तूप, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह,चन्द्र आदि नामों से विभिन्न संघ स्थापित किये ताकि परस्पर में धर्म वात्सल्य भाव वृद्धिगत हो सके। आचार्य अर्हद्बलि ने समागत निर्ग्रन्थ संघ में से जो मुनियों का समूह गुफा से आया था उन्हें 'नन्दि' नाम दिया। जो अशोक वाटिका से आये थे उनमें से किन्हीं को 'वीर', किन्ही को 'अपराजिता' और कुछ को 'देव' नाम दिया। जो पंचस्तूप निवास से आये थे उनमें से कुछ को 'भद्र' नाम दिया। जो शाल्मलिवृक्ष मूल से आये थे, उनमें से किन्हीं को 'गुणधर', तो कुछ को 'गुप्त' नाम दिया। जो खण्डकेशर वृक्ष के मूल से आये थे, उनमें से कुछ को 'सिंह' तथा किन्हीं को 'चन्द्र' नाम दिया। संघ के पाँच भेद उपर्युक्त सभी संघ 'मूलसंघ' के अन्तर्गत ही हैं। डॉ. चौधरीजी ने लिखा है कि 'मूलसंघ' के पुनर्गठन काल में 9-10वीं शताब्दी के लगभग सभी गणों को मूलसंघ के एक छत्र के नीचे एकत्रित किया गया तथा मूलसंघ को चार शाखाओं में विभाजित किया गयासेन, नन्दि, देव और सिंह । इस संघ में स्थान आदि के नाम पर विशेषकर दक्षिण भारत के स्थानों के नाम से स्थापित विभिन्न संघ, गण, गच्छ आदि के अग्र लिखित उल्लेख मिलते हैं2416 AIIIIIIIII INITIATI V तुलसी प्रज्ञा अंक 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy