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करो। अधिकार मत जमाओ। यह अधिकार की भावना परिग्रह है। वह हिंसा को जन्म देती है। संग्रह की मनोवृत्ति को ममत्व की चेतना का फलित मानना चाहिए। ममत्व चेतना है, इसलिए अधिकार की मनोवृत्ति है, संग्रह की मनोवृत्ति है। अपरिग्रह का विमर्श हो वहां ममत्व की चेतना का भी परिष्कार हो, यह पहला आचार बनेगा। इसके लिए ही भेद-विज्ञान का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया।
भेदविज्ञान शरीर और आत्मा में भेद की अनुभूति कराता है। यदि भेदविज्ञान सिद्ध होता है तो पदार्थ के प्रति मूर्छा अपने आप हट जाती है। जब तक यह अभेद की बुद्धि है तब तक मूर्छा बढ़ती चली जायेगी। पदार्थ के द्वारा ही सब कुछ मेरा हो रहा है। यह एक समारोपण हो गया कि अज्ञानी आदमी सोचता है कि पुद्गल से, पदार्थ से ही मेरा सारा काम चलता है, मेरी सारी तृप्तियां हो रही हैं। जब ज्ञान का उदय होता है, ज्ञानयोग में समावेश होता है तो चिन्तन बदलता है कि यह पर तृप्ति है। ‘पदार्थ से होने वाली तृप्ति' यह एक आरोपण किया गया है। वास्तव में यह तेरा स्वरूप नहीं है और तुम्हारी तृप्ति भी नहीं होती। अतृप्ति और बढ़ती चली जाती है।
__ अध्यात्म का सिद्धान्त स्थापित हुआ-जैसे-जैसे पदार्थ का सेवन करो, तुम्हारी अतृप्ति और बढ़ती चली जायेगी और वह न करो तो अतृप्ति का विकल्प रहेगा। सेवन करो, अतृप्ति बढ़ती चली जायेगी। यह पर-तृप्ति का समारोपण है।
___ यथार्थ के धरातल पर सोचें कि सामाजिक व्यक्तित्व परिग्रह से मुक्त नहीं हो सकता, यह निश्चित सिद्धान्त है। पदार्थ से मुक्त नहीं हो सकता और परिग्रह से भी मुक्त नहीं हो सकता। एक संन्यासी के लिए, साधु के लिए एक विकल्प आता है कि वह पदार्थ से मुक्त तो नहीं हो सकता पर परिग्रह चेतना से मुक्त हो सकता है। किन्तु एक सामाजिक प्राणी के लिए पदार्थ से मुक्त होना और ममत्व की चेतना से मुक्त होना या संग्रह से मुक्त होना, दोनों संभव नहीं है। फिर प्रश्न उलझ गया कि यदि एक सामाजिक प्राणी पदार्थ से मुक्त नहीं हो सकता और धन से भी मुक्त नहीं हो सकता तो फिर अपरिग्रह की चर्चा अर्थहीन चर्चा है । इसका समाधान किया गया कि वह चर्चा अर्थहीन नहीं है। अपरिग्रही नहीं हो सकता किन्तु परिग्रह की सीमा करना उसके लिये अनिवार्य है। इच्छा-परिमाण उसके लिए आवश्यक है । एक सुन्दर शब्द का चयन हुआ इच्छा का परिमाण, पदार्थ का परिमाण, संग्रह का परिमाण और उपभोग का परिमाण । तीनों जुड़े हुए हैं। यदि उपभोग की सीमा नहीं है तो पदार्थ की सीमा नहीं हो सकती। पदार्थ की सीमा नहीं है तो परिग्रह की सीमा नहीं हो सकती। उपभोग के लिए बहुत पदार्थ चाहिए। इसे रोका नहीं जा सकता। सबसे पहले तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 ATTITITINITIANINITIN 7
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