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________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 ने सब धर्मों को अपने में समेटा है। जैन, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई, हिन्दू, मुसलमान सभी धर्मों की नीतियां और निर्देशक तत्त्व भारत के दर्शन, कला, साहित्य और संस्कृति की पहचान बने हैं। इस संदर्भ में गौरव के साथ कहा जा सकता है कि राष्ट्र हित में जैन समाज का उल्लेखनीय योगदान रहा है। 0 जैनधर्म सार्वभौम सत्ता को स्वीकार करता है। एक्का मणुस्स जाई' मनुष्य जाति एक है, इस विश्वास के साथ उसने सबको अपने से जोड़ा है। 0 जैनधर्म के असाम्प्रदायिक स्वरूप ने राष्ट्र की भावात्मक एकता को अक्षुण्ण रखने में सहयोग दिया है। जैनधर्म जाति, सम्प्रदाय, वर्ग, लिंग, भाषा के आधार पर किसी को छोटा या बड़ा नहीं मानता। सबके साथ समान मानवीय सम्बन्धों का अस्तित्व स्वीकारता है। O जैनधर्म के अहिंसा सार्वभौम' के सिद्धान्त ने समग्र विश्व के समक्ष उपस्थित आतंकवाद, विघटनवाद, अराजकता, उग्रवाद के सटीक समाधान की दिशा दी है। इससे राष्ट्र मजबूत बना है। 2 जैनधर्म के अनेकान्त दर्शन ने सापेक्ष चिन्तन शैली से राष्ट्रीय स्तर पर उठते विवादों के बीच विग्रह, वैमनस्य, मतभेद और मनभेद को मिटाने और सही दिशा में निर्णय लेने का तजुर्बा दिया है। यह समन्वय, सापेक्षता, समत्व और संतुलन का दर्शन सूत्र है। 2 राष्ट्रीय जीवन में घुन की तरह लगे जातिवाद के कोढ़ को समाप्त करने की दिशा में जैनों का यह विचार, सिद्धान्त और संकल्प एक रचनात्मक भूमिका का निर्माण करता है कि जाति से आदमी कभी ऊंचा-नीचा छोटा-बड़ा नहीं होता, कर्म से आदमी की पहचान होती है। 0 जैन समाज ने एक महत्त्वपूर्ण घोषणा की, जिसकी प्रस्तुति में राष्ट्रसंत आचार्य तुलसी ने कहा था-'धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त राष्ट्रहित में नहीं है। सम्प्रदाय निरपेक्षता की बात कही जाए।' जैन समाज द्वारा कहा गया यह विचार धर्मान्धता पर लगाम बनकर राष्ट्र को इस संकट से ऊबार सकता है। O जैन समाज ने हृदय परिवर्तन की बात कही। दण्ड, कानून और व्यवस्था से जो नहीं बदल सकता, वह हृदयपरिवर्तन से बदल सकता है, इस विश्वास ने लोकशक्ति का निर्माण किया। राष्ट्रीय जीवन में यदि बल प्रयोग के स्थान पर हृदयपरिवर्तन का फार्मूला अपनाया जाए तो अनेक मानसिक अपराधों को रोका जा सकता है। एक सकारात्मक परिणाम सामने आ सकता है। 2 MINITITINITIONITIIIIIIIIIIIV तुलसी प्रज्ञा अंक 108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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