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________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 और चिन्तन के विभिन्न क्षितिजों पर इतना फैला हुआ है कि एक अध्ययनशील और जिज्ञासु व्यक्ति भी इसकी सम्पूर्ण गहराई तक पहुंचते-पहुंचते स्वयं को थका हुआ सा अनुभव करता है । क्यों हुआ ऐसा? इसका विशाल कलेवर क्या अकारण ही है? इतिहासकार अब एकमत है कि जैनधर्म भारत का प्राचीनतम जीवित धर्म है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह की धुरी पर श्रमण परम्परा का सूत्रपात किया । भगवान महावीर जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर हुये। उन्होंने अपने पूर्व-तीर्थंकरों के चिन्तन- मन्थन को एक क्रमबद्ध और व्यवस्थित दर्शन का रूप दिया । अनेकान्त और अनाग्रह की भित्ति पर, सब जीवों के प्रति आत्मवत् आचरण और संयममय जीवनशैली का रूप लेकर जैन धर्म का अवतरण हुआ । सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित्र - यह रत्नत्रयी जैन दर्शन का आधार स्तम्भ है । सत्य और असत्य, श्रेय और प्रेय एवं शाश्वत और नश्वर के बीच सही विवेचन करने की दृष्टि और जो सत्य है, श्रेय है, शाश्वत है, इसमें गहन आस्था सम्यक् दर्शन है। इस आस्था के आलोक में अर्जित ज्ञान सम्यक् ज्ञान है । सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान किस सत्य को अनावृत्त और उद्भाषित करते हैं उसके अनुरूप मनसा कर्मणा आचरण सम्यक् चरित्र है । सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान परस्पर अन्योन्याश्रित हैं । ये दोनों धर्म के सही स्वरूप को जानने के लिए पूर्व शर्त के रूप में जैन-दर्शन के महत्वपूर्ण अंग हैं। धर्म क्या है - बिना सम्यक् ज्ञान के यह समझा नहीं जा सकता, ऐसा जैन दर्शन का आग्रह है और यही आग्रह जैन-धर्म को विज्ञान के धरातल पर ले जाता है । यह अतिरञ्जन नहीं कि विज्ञान (Science) शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त है, वही आशय अगर वह भगवान महावीर के समय व्यक्त करता होता तो उनके दर्शन को संभवतः धर्म की नहीं, विज्ञान की संज्ञा मिलती। जैन धर्म स्वयं अपने आप में एक पूर्ण विज्ञान है, इस बात को कहने से पूर्व, यहाँ विज्ञान की परिभाषा पर एक दृष्टि आवश्यक है Science "Systematic knowledge of the Physical or Material world gained through observation and experimentation"—The Random House Dictionary of the English Language, Second Edition--Unabridged. अर्थात सूक्ष्म निरीक्षण और परीक्षण के द्वारा अर्जित भौतिक पदार्थों का संस्थित ( व्यवस्थित) ज्ञान ही विज्ञान है। मगर यह सृष्टि तो केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित नहीं। द्रव्य जगत् (Physical or Material World) से भी अधिक महत्वपूर्ण अलग WWW तुलसी प्रज्ञा अंक 108 68 Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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