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तुलसी प्रज्ञा अंक 108 सूत्र में - ' सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बंध:' कह कर कषायों के सिर पर बंध का सेहरा बांध दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व - अविरति और प्रमाद भाव जीव की प्रवृत्ति में क्रोध-मान और लोभ रूप में ही चरितार्थ होते हैं। इन कषायों की सघनता या तीव्रता के अनुसार ही मिथ्या - अविरति और प्रमाद की तीव्रता व्यक्त होती है और इन्हीं के अनुसार हास्य-रति- अरति-शोक-भय- जुगुप्सा और वेद आदि में जीव की संलग्नता घटती-बढ़ती रहती है। इसका अर्थ यह हुआ कि कषायों को मंद करना ही बंध से बचने का एकमात्र उपाय है। पं. टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाश में यही निष्कर्ष अंकित किया है- 'तांत योगनिकरि भया प्रकृतिबन्ध प्रदेशबन्ध बलवान नाहीं, कषायनिकरि किया स्थितिबन्ध अनुभागबन्ध ही बलवान है । तातैं मुख्यपने कषाय ही बंध का कारण जानना जिनको बंध न करना होय ते कषाय मति करो।'
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- मोक्षमार्ग प्रकाश, दूसरा अधिकार । 'आगम दर्शन' शास्त्रीनगर धरियावद से प्रकाशित, द्वितीय संस्करण पृ ठ -25 1 पण्डितजी ने आगे पुनः इसी बात को पुष्ट करते हुए कहा - 'एकान्तपक्ष कार्यकारी नाहीं । बहुरि अहिंसा ही केवल धर्म का अंग नाहीं है । रागादिकनि का घटना धर्म का अंग मुख्य है । तातैं जैसे परिणामनि विषै रागादिक घटै सो कार्य करना । "
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- वही, पाँचवाँ अधिकार, पृष्ठ-135 यह अकाट्य प्राकृतिक नियम है कि जीव जब विकारी परिणति करेगा तब वह अनिवार्यतः नवीन कर्मों से बंधेगा । यद्यपि मैं सदा आठों कर्मों के उदय को भोगता हूं परन्तु उनमें से केवल मोहनीय कर्म का उदय ही मेरी चेतना की परिणति को विकारी करता है, इसलिये मोहनीय के उदय के निमित्त से उपजा औदयिक भाव ही मेरे नवीन कर्मबंध में कारण पड़ता है। कभी किसी के लिये भी इस नियम का अपवाद नहीं होता । मोहनीय के उदय काल में जीव को नवीन कर्मबंध होता ही है । इसी प्रकार यह भी निश्चित है कि अन्य कर्मों के निमित्त से उपजे गति लिंग - अज्ञान और असिद्धत्व आदि औदयिक भाव नवीन कर्मबंध में कारण नहीं होते । यहाँ यह भी निर्धारण कर लेना चाहिए कि त्रेपन भावों में मोहनीय की अपेक्षा से गिनाये गये उपशम सम्यक्त्व और उपशम चारित्र नामक औपशमिक भाव, सम्यक्त्व और चारित्र नामक क्षायिक भाव तथा कुमति-कुश्रुत-कुअवधि और सम्यक्त्व, चारित्र तथा संयमासंयम नामक क्षायोपशमिक भाव भी नवीन कर्मबंध के कारण नहीं माने गये। केवल मोहनीय कर्म के निमित्त उपजे और केवल औदयिक भाव ही कर्मबंध में कारण कहे गये हैं।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 108
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