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तुलसी प्रज्ञा अंक 108 धर्म की मूल मान्यता के विरुद्ध है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि राज्य के कानूनों का निर्माण सम्प्रदाय के आधार पर न हो। जब आचार्य भिक्षु ने यह कहा कि लौकिक धर्म को अध्यात्म की कसौटी पर न कसा जाय तो वे वस्तुतः सम्प्रदाय-निरपेक्षता का ही समर्थन कर रहे थे।
आचार्य भिक्षु के सिद्धान्तों के बारे में यह गलत अवधारणा बन गई है कि वे सिद्धान्त समाज-विरोधी है । सामाजिकता का अपना क्षेत्र है। समाज को सुव्यवस्थित करने के लिए जिन नियमों का पालन किया जाना चाहिये वे नियम समय-समय पर सामाजिक संस्थाएं बनाती रहती है। आचार्य भिक्षु का यह अभिप्राय कभी नहीं था कि उन सामाजिक निमयों का पालन सामाजिक पुरुषों को नहीं करना चाहिये । आगम के अध्येता होने के नाते आचार्य भिक्षु को इस बात का पूरा अहसास था कि ग्राम, कुल, राष्ट्र के अपने-अपने धर्म हैं और नियम हैं। सामाजिक पुरुषों को उनका पालन करना ही चाहिये । आचार्य भिक्षु ने एक सिद्धान्त दिया कि चाहे साध्य कितना ही उत्तम हो उसकी सिद्धि के लिए साधन भी उचित ही बरतना चाहिये । इस नियम को उन्होंने आध्यात्मिक जगत में घटाया, क्योंकि वे साधु होने नाते आध्यात्मिक पुरुष थे । अध्यात्म का साध्य है आत्मा की पवित्रता । अपवित्र साधन के द्वारा पवित्रता की सिद्धि उसी प्रकार नहीं हो सकती जिस प्रकार कीचड़ से कपड़ा साफ नहीं किया जा सकता । अध्यात्म की दृष्टि में सभी जीव समान हैं। किसी जीव को हानि पहुंचाकर दूसरे जीव को लाभ पहुंचाने की बात सोचना जीव और जीव के बीच भेद करना होगा । प्रत्येक जीव की अपनी गरिमा है। अधिक जीवों को बचाने के लिए थोड़े जीवों की बलि चढ़ा देना जीव की स्वतंत्रता का हनन है । इन सिद्धान्तों के आधार पर आचार्य भिक्षु ने उचित - अनुचित का विवेक किया। इस विवेक के जो निष्कर्ष थे वे सामाजिक प्राणियों को स्वीकार्य नहीं हो सकते। क्योंकि समाज का आधार वीतरागता नहीं है । परिवार, समाज के लिए धन आवश्यक है। दूसरी ओर धन से धर्म प्राप्त नहीं हो सकता। धन से हम एक-दूसरे का सांसारिक उपकार कर सकते हैं, आध्यात्मिक उपकार नहीं ।
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अध्यात्म और समाज के बीच मूलभूत अन्तर होने के कारण दोनों क्षेत्रों में उचित और अनुचित का आधार अलग-अलग होगा। जो कुछ भी आगम विरुद्ध है वह अध्यात्म की दृष्टि से अनुचित है। लौकिक दृष्टि से तत् तत् संस्थाओं के नियमों का उल्लंघन अनुचित है । इन दोनों के बीच भेद करना चाहिए ।
रेल यात्रा का साधन है। रेल विभाग के अपने नियम हैं। टिकट लिये बिना यात्रा करना नियम विरुद्ध है और कानूनी दृष्टि से दण्डनीय अपराध है। यह एक पक्ष है। रेल के
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तुलसी प्रज्ञा अंक 108
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