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तुलसी प्रज्ञा अंक 108 है । विश्व में पांच अस्तिकायों का अस्तित्व सबका योग है। सृष्टि में केवल दो का ही अस्तित्व है - जीव और पुद्गल का । औरों की कोई अपेक्षा नहीं है । जो भी नव-निर्माण होता है सारा जीव और पुद्गल के संयोग-वियोग से होता है। जीव और पुद्गल का संयोग बना तो अनेक रूप बन जाते हैं। दोनों में संयोग से भी होता है और दोनों के कुछ-कुछ स्वतन्त्रता से भी होता है। पुद्गल के भी अनेक रूप स्वत: बनते रहते हैं, स्कन्ध बनते रहते हैं, द्विप्रदेशी स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक अपना निर्माण करते रहते हैं । जब जीव के साथ इनका संयोग होता है तब नये निर्माण करते हैं । रोबोट केवल पुद्गल का निर्माण है, उसमें चेतना नहीं है। केवल पौद्गलिक सृष्टि है । मनुष्य केवल पौद्गलिक सृष्टि नहीं है । वह जीव और पुद्गल दोनों के संयोग से होने वाली सृष्टि है। एक दृष्टि से देखें तो मनुष्य और रोबोट में वैसे तो अन्तर है चेतना का पर वैसे वह भी उत्पन्न हुआ है, पर्याय एक है। रोबोट पुद्गल का पर्याय और मनुष्य जीव और पुद्गल दोनों का मिश्रित पर्याय । कोई भी मनुष्य मूल द्रव्य नहीं है, सब के सब पर्याय हैं। जैसे कपड़ा एक पर्याय है वैसे आदमी भी एक पर्याय है। पर एक मिश्रण से बना हुआ है । रोबोट, मकान आदि -आदि पदार्थ केवल पौद्गलिक हैं । सारी सृष्टि में जीव और पुद्गल अथवा पुद्गल और कहीं कोरा जीव ये विविध रूपों में बदलते रहते हैं । विविध रूप उनके सामने आते रहते हैं। यह उनकी विविधता और विविध रूपों में होने वाले परिणमन का नाम है सृष्टि । सृष्टि का निर्माता और कोई नहीं प्रतीत होता । स्वयं द्रव्य ही अपने को आविर्भूत करता है, प्रकट करता है तो सृष्टि बन जाती है। पर्याय सामने आते हैं, सृष्टि बनती है। पर्याय जब विलीन होते हैं तो सृष्टि का विलय हो जाता है। अगर आप जगत को बिल्कुल सीमित कर दें, सब पर्यायों को छोड़ दें तो दुनिया छोटी सी हो जायेगी । कोरा द्रव्य रह जायेगा । विस्तार नहीं होगा। जहां आप विस्तार करें तो वहां द्रव्य विलीन हो जायेगा । यह द्रव्यात्मक, पर्यायात्मक यानी कहीं द्रव्य गौण तो पर्याय मुख्य, कहीं पर्याय गौण और द्रव्य मुख्य- विश्व और सृष्टि का एक स्वरूप है इसे एक दृष्टि से हम देख सकते हैं और वह हमारी दृष्टि है उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - तीनों से संयुक्त दृष्टि । जो इन आंखों से देखी नहीं जाती किन्तु अन्तःचक्षु के द्वारा हम अशाश्वत के भीतर शाश्वत को भी देखते हैं और शाश्वत के भीतर अशाश्वत को भी देखते हैं । वह शाश्वत और अशाश्वत दोनों का योग जगत और सृष्टि की व्याख्या कर सकता है।
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NW तुलसी प्रज्ञा अंक 108
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