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महासाधक ही समझ सकता है
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सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यं मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्म लक्ष्मीं तनोति । इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ॥"
विरही का सहज एवं स्वाभाविक चित्रण कालिदासीय प्रतिभा का प्रतिफलित रूप है । यक्ष प्रणयकुपिता प्रेमिका से मिल तो नहीं सकता क्योंकि शाप ग्रस्त है, इसलिए चित्र में मिलना चाहता है उसके चित्र में उसके पैरों पर गिरकर क्षमा मांगना चाहता है । लेकिन हाय रे विधाता की क्रूरता, चित्र में भी प्रेमी युगल का मिलन उसे सह्य नहीं हुआ
वामख्य प्रणयकुपितां धातुरागैः शिलायां आत्मानं ते चरणपतितुं यावदिच्छामि कर्तुम् । अस्तावन्मुहुरुपचितैर्दृष्टिरालुप्यते मे
क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते संगमं नौ कृतान्तः ।। "
हे प्रिय ! प्रेम में रुठी हुई तुमको गेरुरंग से चट्टान पर लिखकर जब मैं तुम्हारे चरणों में गिरकर क्षमा मांगना चाहता था, तभी आंसू उमड़कर मेरी दृष्टि समाप्त कर दिए। निष्ठुर देव को चित्र में भी हम दोनो का मिलना नहीं सहा जाता है ।
भवभूति वाक्विभूति - सम्पन्न हैं । मुग्धासीता का सहज रूप का चित्रण, भारतीय दाम्पत्य का अनाविल निरूपण कितना सुन्दर है । राम के वक्षस्थल पर विश्वास पूर्वक सोई हुई सीता का रूप सौन्दर्य किसे भावित नहीं करता
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इयं गेहे लक्ष्मीरियममृतवर्तिनयनयोरसावस्याः स्पर्शो वपुषि बहुलश्चन्दनरसः । अयं बाहुः कण्ठे शिशिरमसृण मौक्तिकसर: किमस्या न प्रेयो ? यदि परमसह्यस्तु विरहः ॥" यह सीता मेरे घर की लक्ष्मी है, आंखों के लिए अमृत की शलाका है, इसका यह स्पर्श शरीर में गाढ़े- गाढ़े चन्दन रस का लेप है इसकी भुजलता कण्ठ में शीतल और स्निग्ध मोतियों के हार के समान है । अधिक क्या ? इसकी कौनसी वस्तु प्रिय नहीं है ? परन्तु इसका विरह सर्वथा असह्य है ।
आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में सौन्दर्य-बोध के आवश्यक तत्व 'सहजता' को देखा जाए तो यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि 'सहजता' इनका प्राण है । एक महान् योगी सौन्दर्य का महासाधक कितना सहज और सरस होता है, महाकवि महाप्रज्ञ को देखने से ही पता चलता है । जीवन सहज, जीवन पद्धति सहज और स्वयं विरचित शास्त्र सहज -- यह सहजत्रयी की संभावना दुर्लभ है । लेकिन विवेच्य महाकवि में सहजत्रयी की प्राप्ति भी सहजता से देखी जा सकती है । इनका प्रत्येक ग्रंथ सहजतया के व्याख्यान में ही समर्पित है । अश्रुवीणा का प्रारंभ भी इसी तत्त्व के निरूपण से होता है । कवि कहता है कि हे श्रद्धे ! तू उसी का वरण करती है जो
खंड २३, अंक ४
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