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________________ हरियाणे की श्रद्धा हम सुनते आए, क्या शेर गीदड़ों के भय से घबराये । बोलो ! जैसी इच्छा गुरुवर पे जाऊं । कर विनय हुकुम ले वापिस तुम्हें सुनाऊं । ( मगन चरित्र पृष्ठ ५८ ) मुनि मगनलालजी उक्त वचन सुनकर श्रावकों के घबराये दिलों में जोश जागृत हुआ । लाला पेसीराम लाला द्वारकादास का मुख्य मुनीम था । उसकी मां दृढ श्रद्धालु और धर्मसंघ के लिए सब कुछ करने के लिए तत्पर रहती थी । वह भी अपने पुत्र में वीरता का भाव भरती हुई कहती है खण्ड २३, अंक ४ पेसी की मां बोली बेटा सुण लीजे । जो मेरा जाम्योड़ा मत पीठ तकीजे । दीक्षा बाजते ढोल बजार दिराजे । वरना तू जिन्दा मनै न मुंह बताजे ॥ इसी प्रकार शांत रस का एक उदाहरण देखिए- बात वि. सं. १९७९ की है । आचार्य कालूगणी का चातुर्मासिक प्रवास राजस्थान प्रान्त के अन्तर्गत बीकानेर शहर में था । उस समय विरोधी वातावरण का अतिरेक था। विरोधी लोग साधु-साध्वियों को गालियां देते थे । एक तांगे वाले ने विरोधियों से प्रेरित होकर मुनि मगनलालजी की पीठ पर चाबुक की मार दी । आचार्य कालूगणी को भी मारने का षड्यंत्र बनाया गया था । उस समय विरोधी हरकतों को देखकर श्रद्धालु तरुणों का खून उबल गया । वे कुछ कर दिखाना चाहते थे । सुमेरमलजी बोथरा उनके नेता थे। सिर्फ उनके इंगित मात्र की देरी थी। मुनि मगललालजी को यह बात मालूम पड़ी। उन्होंने सुमेरमलजी को याद किया । वे आये। मुनि मगनलालजी ने उन्हें एक सामायिक का प्रत्याख्यान करा दिया जिससे वे बाहर नहीं जा सके । इससे होने वाला घमासान टल गया। इस अवसर पर मुनि मगनलालजी ने सुमेरमलजी से जो शब्द कहे वे प्रज्ज्वलित आग को शांत करने वाले थे । आचार्यश्री ने उन भावों को अपने शब्दों में इस प्रकार गूंथा है Jain Education International ( मगन चारित्र पृष्ठ ५९) आपां रो धर्म संघ है शान्ति गवेषक, यद्यपि सीमाधिक हुई हरकतां बेशक खामोशी का फल समझो अंत मधुर है, अपर्ण गुरुवां स्यूं मिल्यो सदा ओ गुर है । औरां री सौ अरू इक गल्ती आपांरी, T ही देखेला सभ्य दृष्टि दुनियां री ॥ १ For Private & Personal Use Only ४५७ www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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