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मन्दिर का निर्माण हो जाने पर उसमें पूजा इत्यादि की व्यवस्था करने हेतु धन की आवश्यकता पड़ती थी । इसके लिए कई तरह की व्यवस्था की जाती थी । इस सम्बन्ध में वि. सं. ९७३ एवं ९९६ के शिलालेख से ज्ञान वर्द्धक जानकारी मिलती है । इस अभिलेख में कहा गया है कि हस्तिकुडी नगरी में श्री बलभद्र गुरु के लिये विदग्धराज ने जिन मन्दिर का निर्माण करवाया । उस मन्दिर में नाना देशों से आये हुए जन समुदाय को आमन्त्रित कर उनकी साक्षी में चन्द्र सूर्य की स्थिति तक राजा ने आज्ञा प्रसारित की कि बीस पोठों के क्रय-विक्रय तथा आयात-निर्यात पर धर्मार्थ नित्य एक रुपया देय होगा । " भरी हुई गाड़ी के यहां से गुजरने पर एक रुपया देना होगा तथा प्रत्येक घाणी तथा अरहट पर एक कर्ष सबको रीति के अनुसार देना होगा ।" पान विक्रेताओं तथा जुआरियों को प्रत्येक अड्डे के लिए १३ चोल्लिका २ मन्दिर हेतु शासन को देना होगा। डॉ० दशरथ शर्मा का मत है कि चोल्लिका शब्द का राजस्थान के अभिलेखों में अन्यत्र भी प्रयोग किया गया है जिसका तात्पर्य बाहर से मंगाई जाने वाली पान की टोकरी से था और जिस पर ५० पान के पत्तों का सरकारी टैक्स था । ' 3 हस्तिकुडी में प्रत्येक अरहट से गेंहू व जौ से भरा हुआ आढक लेने की व्यवस्था की गई थी। भंस पर पांच पालिकाए एवं प्रत्येक भार" पर कौड़ी का २० वां भाग मन्दिर हेतु लिया जाता था । इस प्रकार मन्दिर की जो आय होती उसके २ भाग मन्दिर हेतु तथा शेष तीसरा भाग आचार्य हेतु अर्थात विद्याध्ययन पर खर्च किया जाता । इस अभिलेख में कहा गया है कि राजा, उसके पुत्रों, पौत्रों, गोष्ठिकों तथा नगर वासियों को गुरु एवं देव धन की रक्षा करनी चाहिए। दान देने फल है दान से भी अधिक उसके पालन में फल है । गुरु तथा देवता के धन को खाने और उसकी उपेक्षा करने से पाप होता है ।
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हस्तिकुंडी के अभिलेखों में गोष्ठिक " तथा पंचकुल" शब्द आये हैं जो मन्दिर आर्थिक गतिविधियों की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । गोष्ठी प्राचीन काल में स्वायत संस्था होती थी जिसके सदस्य गोष्ठिक कहलाते थे । हस्तिकुंडी के मन्दिर की गोष्ठी ने भी जैन मन्दिर के जीर्णोद्वार में महत्वपूर्ण योगदान दिया था ।"
वि. सं. १०४८ के अभिलेख से संकेतित है कि श्री शान्ति भद्राचार्य द्वारा गठित गोष्ठी ने मंडप का निर्माण करवाया । " गोष्ठी एक ऐतिहासिक संस्था थी । शंकर ने उसके लक्षण बतलाते हुए लिखा है कि जहां विद्या, धन, शील, बुद्धि और आयु के समान शील लोग अनुरूप बातचीत के द्वारा, एक स्थान पर बैठकर विचार करें तो उसे गोष्ठी कहते है । २२ रामायण तथा महाभारत में गोष्ठी का उल्लेख हास्य विनोद के सार्वजनिक स्थल के रूप में मिलता है । " क्षीर स्वामी तथा रमेश चन्द्र मजूमदार का विचार है कि गोष्ठी प्राचीन समाज का ही दूसरा रूप था । २४ वात्स्यायन ने भी विभिन्न प्रकार की गोष्ठियों का उल्लेख किया है । "
गोष्ठी के स्वरूप के सम्बन्ध में बिद्वानों में मतभेद है । जी. एन. शर्मा ने इन्हें श्रेणी की तरह की प्रादेशिक स्तर पर सरकारी कार्यों में सहयोग देने वाली संस्था माना है । २६ के. सी. जैन के विचार भी इसी तरह के हैं । उनकी मान्यता है कि साधारणतया स्थानीय संस्थाए शासक और उसके अधिकारियों की रक्षा करती थी । ये संस्थाएं
तुलसी प्रशा
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