SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजस्थान में जैन मन्दिरों की आर्थिक व्यवस्था (हस्तिकुण्डो अभिलेखों के सन्दर्भ में) हा सोहन कृष्ण पुरोहित हस्तिकुण्डी नगरी जवाई बांध से १४ किलोमीटर दूर स्थित बीजापुर ग्राम से सवा तीन किलोमीटर की दूरी पर है । वर्तमान में इस उजड़ी नगरी का नाम हथूण्डी है। यह जैन तीर्थ ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थल है ।' यहां से उल्लिखित अभिलेख प्राप्त होने और रातामहावीर जी की प्रतिमा की विशिष्ट प्रतिष्ठा के कारण इसकी प्रसिद्धि है । हस्तिकुण्डी से वि. सं. ९९६,१०५३, १३३५, १३३६, १३४५, १३४६ १२९९, १०११, १०४८ और ११२२ के अभिलेख मिले हैं। इन अभिलेखों को कीलहान, मुनिजिनविजय, पूरण चन्द नाहर, डॉ. गोपीनाथ शर्मा, डॉ. सोहनलाल पटनी के अलावा सुखवीर सिंह गहलोत डॉ. सोहन कृष्ण पुरोहित एवं डॉ. नील कमल शर्मा ने प्रकाशित किया है । डॉ. सोहन लाल पटनी ने अपने ग्रन्थ में हस्तिकुण्डी के कुछ नये शिलालेखों का भी प्रकाशन किया है । हस्तिकुण्डी से प्राप्त अभिलेखों से प्राचीन काल में राजस्थान के जैन मन्दिरों की संचालन-व्यवस्था सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। वि. सं. १०५३ के धवल के शिलालेख से ज्ञात होता है कि जैन आचार्य अपने शिष्यों को मन्दिर निर्माण हेतु प्रेरणा देते थे। राज परिवार के लोग तुलादान के माध्यम से धन की व्यवस्था करते थे। राजकुमार मम्मट ने भी आचार्य वासुदेव की इच्छा का आदर करते हुए मन्दिर बनवाने को स्वर्णदान दिया। ' जिसका २/३ भाग जिन (तीर्थङ्कर) को और शेष भाग पूज्य गुरुदेव को समर्पित किया। कई बार राज परिवार के लोग मन्दिर के दैनिक व्यय की पूर्ति हेतु भूमि अथवा कुआ भी दान में दे देते थे। हस्तिकुडी अभिलेख से संकेतित है कि धवल ने पीपला गांव का कुंआ जैन मन्दिर को भेंट किया। प्रो. के. सी. जैन एवं डॉ. सोहन लाल पटनी का विचार है कि यहां श्लोक का अर्थ पिप्पल गांव का कुंआ नहीं अपित पिप्पल नामक कंआ मानना चाहिये ।' वासुदेव अत्यन्त तेजस्वी आचार्य थे। उनके उपदेश से प्रभावित होकर हरिवर्मा के पुत्र राजा विदधराज ने विशाल एवं सुन्दर ऋषभदेव के मन्दिर का उद्धार किया। यह मन्दिर मणियों से से दीप्त एवं धुंघराले केशों से युक्त सुन्दर स्त्रियों के मुख मण्डल की तरह मनोहर प्रतिभासित था। विदग्धराज द्वारा निर्मित मन्दिर के जीर्ण होने पर राजा धवल ने उसमें प्रथम तीर्थङ कर ऋषभदेव की प्रतिमा वि. सं. १०५३ में स्थापित की। तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy