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________________ से परिभ्रमण करता है। उस मास के अन्तिम दिन में दो पांव चार अंगुल से पौरिसी होती है। ग्रीष्म ऋतु के चतुर्थ मास को तीन नक्षत्रपूर्ण करते हैं-मूल, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा । मूल चौदह अहोरात्रि, पूर्वाषाढा पन्द्रह अहोरात्रि और उत्तराषाढा एक अहोरात्रि रहता है । उस समय वर्तुल, समचतुस्र संस्थान और न्यग्रोध परिमंडल संस्थान वाली अपनी काया समान छाया से सूर्य परिभ्रमण करता है । उस समय दो पांव से पौरिसी होती है।" ५. द्वार ____ अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वभाद्रपद, उत्तरभाद्रपद, रेवती ये पूर्व द्वार हैं । अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगसर (संठाण) आर्द्रा, पूनर्वसु ये सात दक्षिणद्वार हैं । पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त और चित्रा ये सात नक्षत्र पश्चिम द्वार हैं । स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा ये सात नक्षत्र उत्तर द्वार हैं। उन उन नक्षत्रों में उस उस दिशा में यात्रा करनी शुभ होती है । ६. भोजन कृत्तिका को दहि, रोहिणी को वृषभकंद, मगसर को कस्तूरी के दाने, आर्द्रा को नवनीत, पुनर्वसु को घृत, पुष्य को खीर, अश्लेषा को चित्रक, मघा को कसार, पूर्वफाल्गुनी को मेंढासिंगी का गुदा, उत्तरफाल्गुनी को बड़े बेर का गुदा, हस्त को गिलोय, चित्रा को मूंग का सूप, स्वाति को फल, विशाखा को खाजे, अनुराधा को कस्तूरी मिला हुआ अन्न, ज्येष्ठा को बेर की खोडी, मूल को सहिजन, पूर्वाषाढा को आमला, उत्तराषाढा को वेलः अभिजित् को पुष्प, श्रवण को खीर, धनिष्ठा को जूस, शतभिषा को तुवर की दाल, पूर्वाभाद्रपद को करेला, उत्तरभाद्रपद को वाराहीकंद, रेवती को नारियल की गिरी, अश्विनी को मैथी और भरणी को तिल, चावल, इन नक्षत्रों में उनका भोजन खाकर जाने से कार्य की सिद्धि होती है ।८ ७. कुलोपकुल संज्ञा ___ धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मृगसर, पुष्य, मघा, उत्तरफाल्गुनी, चित्रा, विशाखा, मूल, उत्तराषाढा, ये बारह नक्षत्र कुलसंज्ञक हैं। श्रवण, पूवभाद्रपद, रेवती, भरणी, रोहिणी, पुनर्वसु अश्लेषा, पूवफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, ज्येष्ठा और पूर्वाषाढा ये बारह नक्षत्र उपकुलसंज्ञक है । अभिजित् शतभिषा, आर्द्रा और अनुराधा ये चार नक्षत्र कुलोपकुलसंज्ञक हैं ।" इस प्रकार नक्षत्रों के संबन्ध में जैन आगमों में विस्तृत वर्णन है और उनके देवता, तारे, गोत्र , संस्थान, द्वार, भोजन और कुलोपकुल संज्ञा के साथ योगायोग के विवरण प्राप्त होते हैं । पाठकों की सुविधा के लिए उनका एक चार्ट नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है-- ४२४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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