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________________ पड़ा है, उसके संबंध में कुछ विचार-विदु यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं :१. ज्ञान-वर्शन-चारित्र या दर्शन-ज्ञान-चारित्र ? आ० उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र का पहला सूत्र है-'सम्यक्-दर्शन-ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : '। यहां श्रद्धापूर्वक दर्शन, ज्ञान और चारित्र को प्रशस्त माना गया है । यह तीसरी-चौथी सदी के प्रारंभ का ग्रंथ है। उसके पूर्ववर्ती स्थानांग (३.५०९ एनं ३.४८९) आदि सूत्रों के तथा षट्खंडागम के समान प्राचीन कर्मवाद के ग्रंथों में ज्ञान-दर्शन-चारित्र का क्रम बताया है। इस प्राचीन क्रम के परिवर्तन का आधार क्या हो सकता है ? क्या इसे बुद्धिवाद पर व्यक्तिबाद के प्रारंभ की विजय माना जाए जिसमें दर्शन के कारण (निःशंकित अंग?) ज्ञान पूर्वाग्रही हो जावे । दर्शन का पहला अंग ही जिज्ञासा शंका या संदेह का ऊर्ध्वगमन है। इसे बुद्धिवादी जगत् स्वीकार करने में अपने को असमर्थ पाता है । मुझ लगता है कि ज्ञान-दर्शन-चारित्र का क्रम अधिक वैज्ञानिक है। ज्ञानी की श्रद्धा भी बलवती होती है । मन-वचन-काय या काय-वचन-मन ? हम सभी प्राय: मन-वचन काय की चर्चा करते हैं। इससे प्रकट होता है कि सोचकर बोलो और करो। यह क्रम प्राचीन और आगमिक है। गुप्ति, दंड, गर्दा आदि के प्रकार इसी क्रम के निरुपक हैं। स्थानांग (पेज १६१-६२) पर आ० उपास्वाति ने वहां भी क्रम परिवर्तन किया है-"काय-वाङ्-मन कर्म योगः" । इस क्रम-परिवर्तन का आधार भी विचारणीय है। मन बड़ा है या काय ? क्रिया बड़ी है या विचारणा, जिसके आधार पर क्रिया की जाती है। कर्म के विकास आस्रव एवं कर्म बंध की अवधारणा को इतिहास के विकास की दृष्टि से आ. उमास्वाति परंपरा वादी सिद्ध होते हैं क्योंकि जनधर्म में कुंदकुंद के युग से पूर्व भी भाव या मन की प्रधानता या प्राथमिकता की चर्चा चल पड़ी थी। मन भावों, विचारों, आवेगों आदि का आधार है। क्या उमास्वाति मन की गौणता स्वीकार कर भक्तिवाद की प्रस्तावना के रूप में मन को अंतिम स्थान देते हैं ? बुद्धिवादी युग मनपूर्वक क्रिया का समर्थक है। पश्चिमी विचारक भी इस क्रम के व्यत्यय पर विचार करने लगे हैं । फलतः यह क्रम भ्यत्यय विचारणीय है। ३. संरंम-समारंभ-आरंभ या संरंभ-आरंभ समारंभ ? कर्मवाद और कषायवाद जैनों के दो प्रमुख सिद्धांत है । माला के १०८ मणियों का आधार कषायवाद का विस्तार है-४४३४३४३ (संरंभ आदि) । इनमें संरंभ, समारंभ और आरंभ का क्रम आगमों में भिन्न है और दिगंबर ग्रंथों में भिन्न है। क्रम भिन्नता से किसी पद की अर्थ- भिन्नता भी हो गई है (समारंभ)। श्वेतांबर ग्रंथों में (स्थानांग ३.१६ या ७-८४-८९) यह क्रम निम्न है। १ आरंभ, संरंभ, समारंभ (परिताप पश्चत्ताप) यहां क्रिया के आधार पर संकल्प के होने की सूचना है। साथही, यदि क्रिया अशुभ है, तो उसके लिये स्वाभाविक परिताप के मनोभाव होने का संकेत है। इस प्रकार, यहां कर्म-मन-मनोवेग तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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