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________________ विचार मंच जैनों की सैद्धांतिक धारणाओं में क्रम-परिवर्तन ? नंदलाल जैन जैनधर्म और दर्शन के अध्ययन से ऐसा लगता है कि जन्मना जैन बने रहना अत्यंत सरल है, किन्तु कर्मणा जैन बन पाने का प्रयत्न ऊहापोह का शिकार बनता दिखता है । विभिन्न युगों में धर्म की परिभाषाओं के विकास का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह क्रियाकांड, ज्ञानयुग, भक्तियुग एवं वैज्ञानिक युग के परिवों से गुजरा है । इसमें सर्वजन हिताय से 'व्यक्ति हिताय' का चरण आया और अब फिर 'बहुजन हिताय' की झलकियां दिखने लगी हैं । वस्तुतः धर्म का जो स्वरूप ज्ञानवादी और वैज्ञानिक युगों में निखरता दिखा है, उसने नयी पीढी को आकर्षित किया है। इससे नई पीढ़ी की ओर परंपरावादियों की आंखें भी उठी हैं, पर वह उसकी परवाह किये बिना धार्मिक मान्यताओं का विश्लेषणात्मक परीक्षण करते हुए उसे व्यावहारिक और वैज्ञानिक रूप देने में लगी हुई है । यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि अनेक धार्मिक संत और विद्वान धार्मिक सिद्धांतों की कालिक सत्यता एवं अपरिवर्तनीयता के मापदण्ड को आधार बनाकर उसमें वैज्ञानिकता, परिवर्तनशीलता या संवर्धनशीलता की उपेक्षा कर देते हैं। अभी एक पुस्तक प्रकाशित हुई है 'साइंटिफिक कन्टेंटस इन प्राकृत कैनन्स' । इसमें धार्मिक साहित्य में वर्णित विचार, आचार एवं घटनाओं में क्रम परिवर्तन, नाम भिन्नता, नाम एवं क्रम भिन्नता, संख्यात्मक एवं अवधारणात्मक भिन्नता तथा भौतिक निरीक्षणों की विविधता के तीस संदर्भ दिये हैं। यह भिन्नता परिवर्तन, संशोधन, विस्तारण या संक्षेपण की प्रतीक तो मानी ही जानी चाहिए। शास्त्र पारंगत विद्वानों से चर्चा करने पर यह मनोरंजक तथ्य सामने आता है कि वे उन भिन्नताओं को परिवर्तन मानने को तैयार ही नहीं लगते । आज का विद्यार्थी जानता है-जहां प्रवाह नहीं, वहां प्रगति नहीं। फिर भी, इन भिन्नताओं के परिप्रेक्ष्य में वे ज्ञान को प्रवाह रूप मानने को तैयार नहीं हैं। इसी कारण विश्वधर्म की क्षमता (प्रशास्ता, पवित्र पुस्तक, उत्तमता) रखने वाले जैन तंत्र के अनुयायी इस भूतल पर केवल ०.०४% ही बने हुए हैं। किसी भी तंत्र की प्रवाहशीलता को न मानना उसकी प्रगति में बाधक ही सिद्ध होता है। ___इसी पृष्ठ भूमि में कुछ ऐसे प्रकरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनसे यह प्रवाह अवरुद्ध या प्रगत हुआ होगा। यह अवरोध या प्रगति ही इस तंत्र की वैज्ञानिकता को व्यक्त करती है और इसके सिद्धांतों को विचारणीय परीक्षण के क्षेत्र में ला देती है। इन प्रकरणों में परिवर्तन का आधार क्या रहा होगा, और क्रम-परिवर्तन का क्या प्रभाव तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३ अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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