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________________ कहलाता है ।२४ हरिभद्र ने भी सूत्रार्थ रूपी बीजों को अविनश्वर रूप से धारण करने के कारण धारणा को कोष्ठक कहा है ।२५। _____ वस्तुतः स्मृति का परिणामी कारण यह कोष्ठक ही होना चाहिये। जिसकी धारणा शक्ति जितनी प्रबल होती है उसकी स्मृति भी उतनी ही तेज व स्थिर होती है । शब्दकोष के अनुसार धारणक्षम बुद्धि को मेधा कहा जाता है-'सा मेधा धारणक्षमा ।२६ देव वाचक ने मेधा को अवग्रह तथा बुद्धि को अवाय के पर्याय रूप में उल्लिखित किया है ।२७ इन दोनों अवधारणाओं के सन्दर्म में मेधा एवं बुद्धि शब्द के अर्थ की उत्कर्ष यात्रा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । साथ ही यह भी स्पष्ट है कि स्मृति के परिणामी कारण के परिप्रेक्ष्य में शाब्दिकों की मेधा से नन्दी सूत्रीय कोष्ठा की तुलना में कोई आपत्ति नहीं । आधुनिक परामनोविज्ञान में पूर्वजन्म की स्मृति के विषय में महत्त्वपूर्ण अनुसंधान कार्य चल रहा है । पूर्वजन्म की स्मृति एवं उससे प्राप्त होने वाली सूचनाओं की अविसंवादिता के आधार पर आत्मा एवं कर्म सिद्धांत की सिद्धि संभव है । एक या दो जन्म तक ही नहीं, जोय बर्वे नामक एक बालिका ने अपनी नौ जन्मों तक की स्मृति की चर्चा करके मनोवैज्ञानिकों के समक्ष बहुत कुछ चिंतन एवं अनुसंधान का अवकाश प्रदान कर दिया है ।२८ जैन दर्शन बहुत प्राचीनकाल से ही जातिस्मृति ज्ञान के अस्तित्व में विश्वास करता रहा है, उसके अनुसार जातिस्मृति, मतिज्ञान का एक प्रकार है जिसके द्वारा निरन्तर नौ जन्मों और उन जन्मों में यदि जाति स्मृति या अवधिज्ञान हुआ हो तो उस आधार पर अनगिनत जन्मों की घटनाओं को व्यक्ति साक्षात जान सकता है। जाति स्मृति का उपादान कारण है धारणा । धारणा जिसकी चिरस्थायी होती है, प्रतिष्ठा एवं कोष्ठा बुद्धि का जितना विकास होता है, जाति स्मृति की संभावनाएं उतनी ही अधिक हो जाती हैं, पूर्व जन्म में अनुभूत वस्तुओं, परिचित व्यक्तियों आदि को देखकर, तत्सदृश घटनाओं, नृत्य आदि के कारण जब व्यक्ति ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करता है तो लेश्या विशुद्धि, चित्त की एकाग्रता एवं संस्कार-प्रबोध से जातिस्मरण ज्ञान हो जाता है । जैन शास्त्रों में इसकी सुविस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। योग दर्शन एवं बौद्ध दर्शन में भी जातिस्मृति ज्ञान को स्वीकार किया गया .. योगदर्शन के अनुसार संस्कार चित्त के अपरिदष्ट धर्म हैं, वे घटादि दृश्य पदार्थों के समान सभी को दिखायी नहीं देते, वे पूर्वजन्मों में निष्पादित होते हैं, जब उनमें संयम किया जाता है तो उनका साक्षात्कार होता है । संस्कारों के साथ तत्सम्बन्धी देश, काल, निमित्त आदि का भी साक्षात्कार होता है, इससे पूर्वजन्म का ज्ञान होता पूर्व-पूर्व जन्मों में संचित प्रबल संस्कारों में मानवीय आकार, इन्द्रिय, मन आदि की धारणा करके उसमें समाधिबल से यदि ज्ञानशक्ति को पूंजीभूत किया जाए तो संस्कार अपने विशेषणों से युक्त होकर सम्यक् रूप से विज्ञात हो जाते हैं कि वे कहां, किस जन्म में, किस रूप में संचित और चित्त पर समारूढ़ हुए थे फलतः तत्सम्बन्धी बण्ड, २३, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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