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________________ का भाष्य करते हुए बताया कि धारणा का संख्यातकाल एवं असंख्यातकाल वस्तुतः वासना की अपेक्षा से है ।" उनके अनुसार उपयोग सातत्य रूप अविच्युति जो धारणा का प्रथम भेद है. अन्तर्मुहर्त काल की होती है, वासना-प्रबोध से होने वाली स्मृति भी उपयोग रूप है, छद्मास्थिक उपयोग का काल अन्तर्मुहूर्त है, अत: स्मृति भी आंतमोहूर्ति की होती है, वासना तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम है । यह यावज्जीवन भी हो सकती है और अल्पकालिक भी, इसलिये वासना का काल आयुष्य के समान दो प्रकार का होता है --- १. संख्यात काल---- जिस समयावधि की गणना, मास, ऋतु, वर्ष आदि के द्वारा हो सके वह संख्यातकाल है, सामान्यत: वर्तमानकालीन मनुष्यों व तिर्यञ्चों की आयु संख्यातकाल की होती है अत: उनकी वासना-धारणा भी संख्यातकालिक होती है । २. असंख्यातकाल-.. जिस काल की गणना मास, ऋतु, वर्ष आदि की संख्या से नहीं की जा सकती अथवा जिसे उपमाओं के द्वारा अभिव्यक्त किया जाए वह असंख्यातकाल कहलाता है, जैसे पल्योपम. सागरोपम आदि देवता. नारकी के समान कुछ क्षेत्र विशेष तथा समय विशेष में होने वाले मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों की आयु भी उपमेयकाल (असंख्यातकाल) की होतो है, ऐसे असंख्यात वर्षायुष्क प्राणियों की वासना भी असंख्यातकाल की हो सकती है । चर्णिकार जिनवास ने अविच्युति का काल जघन्यत: असंख्यात समय एवं उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्त कहा है । १२ आचार्य हरिभद्र एवं मलयगिरि ने भाष्य का अनुसरण किया है ।' स्वामी वीरसेन के अनुसार धारणा का यह कालमान-संख्यात-असंख्यात काल ही कोष्ठबुद्धि का आधार है ।१४ धारणा के प्रकार-- अर्थावग्रह, ईहा और अवाय के समान धारणा के भी छह प्रकार होते हैं १. श्रोत्रेन्द्रिय धारणा २. चक्षुरिन्द्रिय धारणा ३. घ्राणेन्द्रिय धारणा ४. रसनेन्द्रिय धारणा ५. स्पर्शनेन्द्रिय धारणा ६. नोइन्द्रिय धारणा । धारणा के इन छह प्रकारों के विषय में सम्पूर्ण जैनवाङ्मय में कोई मतभेद नहीं अवग्रह, ईहा एवं अवाय के समान धारणा के पर्यायवाची नामों की भी तीन धाराओं का उल्लेख किया जा सकता है । धारणा के पर्यायवाची नामों की एक श्रृंखला नन्दीसूत्र में उपलब्ध होती है जिसकी व्याख्या जिनदासगणी, हरिभद्रसूरि एवं मलयगिरि ने की है । दूसरी परम्परा को षट्खण्डागम सूत्रीय या दिगम्बर परम्परा कहा जा सकता है जिसकी व्याख्या धवला में स्वामी वीरसेन ने की है तथा तीसरी परम्परा तत्त्वार्थभाष्य में उपलब्ध होती है, जिसे सिद्धसेनगणी ने अपनी भाष्यानुसारिणी टीका में उकित किया है ।। नन्दीसूत्र में धारणा के जिन पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख किया गया उनमें खण्ड, २३ अंक ४ ४०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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